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________________ परिचय आत्मा अनन्त शक्ति का पुञ्ज है परन्तु उसकी वह शक्ति कर्मों द्वारा छिपी हुई है । आत्मा प्रयत्न करके ज्यों ज्यों अपना कर्मभार हलका करता जाता है त्यों त्यों उसकी आत्म-शक्ति प्रगट होती जाती है । 1 संयम, तप, त्याग, आत्मा के कर्म-मल धोने के साबुन है । जो व्यक्ति इनका जितना अधिक प्रयोग करता है उतना ही अधिक उसका आत्मा स्वच्छ होता जाता है और अनेक ऋद्धियाँ- सिद्धियाँ अनायास उसे प्राप्त होती जाती हैं । आत्म-शुद्धि में तत्पर ऋषियों को तपस्या के बल से अनेक प्रकार की शारीरिक ( चारण, विक्रिया, अणिमा, महिमा, लघिमा आदि ) वाचनिक ( वादित्व, आशीर्वाद, अन्तर्मुहूर्त में द्वादशांग पाठ करना आदि ) तथा मानसिक (कोष्ठ, बीज, द्वादशांग धारणा आदि ) एवं आध्यात्मिक ( अवधि ज्ञान, मनः पर्यय ज्ञान आदि ) ऋद्धियाँ स्वयं सिद्ध हो जाती हैं । घातिकर्म क्षय हो जाने पर तो कैवल्य अवस्था में अर्हन्त भगवान् आत्मा की अनन्त अक्षय शक्तियों के अधिष्ठाता बन ही जाते हैं । उन अर्हन्त भगवान् की समता प्राप्त करने का इच्छुक श्रद्धालु भक्त जन अपने स्वच्छ हृदय से उनकी भक्ति में तन्मय हो जाता है तो इस प्रबल भक्ति में तन्मयता के कारण भक्त पुरुष के आत्मअनुभूति ( सम्यग्दर्शन) भी हो जाती है तथा बहुत सा कर्म- पुञ्ज क्षय हो जाता है । तब उसे अनेक अचिन्त्य लाभ स्वयं मिल जाते हैं । स्वयंभू स्तोत्र, भक्तामर कल्याण मन्दिर, एकीभाव, विषापहार आदि स्तोत्रों की रचना उसी अचल भक्ति के कारण हुई है । तदनुसार इन स्तोत्रों के रचयिताओं को रचना करते समय आश्चर्यजनक लाभ हुआ और कालान्तर में अन्य असंख्य व्यक्तियों ने अच्छा ( २७ )
SR No.002453
Book TitleBhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherShastra Swadhya Mala
Publication Year1974
Total Pages152
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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