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( २०) सकती । दृढ़ भक्ति के लिये दृढ़ सुश्रद्धा चाहिये । वह ज्ञानपूर्वक ही हो सकती है क्योंकि बिना ज्ञान के श्रद्धा, अन्धश्रद्धा बनकर रह जाती है । श्रद्धा और ज्ञान के साथ सम्यक चारित्र मिलकर मोक्षमार्ग बनता है। इस प्रकार भक्ति मोक्षमार्ग-परमात्मपद प्राप्ति . का साधन है। इसीलिये स्तुति को सम्यक्त्व-वधिनी क्रिया तथा कृतिकर्म (कल्याण का सुलभ साधन) माना गया है ।
जिनेन्द्र-गुण-चर्चा जिनेन्द्र की गुण-स्तुति और दर्शन का तो अपूर्व फल है ही पर उनकी चर्चा का भी महान् फल है । भक्तामर में ही देखिये :आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषं
___ त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । ' दूरे सहस्र-किरणः कुरुते प्रभव
.. पद्माकरेषु जलजानि विकास-भाजि ॥६॥ अर्थ-प्रभो ! आपके निर्दोष स्तवन में तो अनन्त शक्ति है हो पर आपकी पवित्र कथा-चर्चा भी जगत के जीवों के पापों को नष्ट कर देती है। जैसे सूर्य दूर रहता है पर उसकी उज्ज्वल किरणें ही तालाबों में कमलों को विकसित कर देती हैं। इसी विषय में दूसरा उदाहरण कल्याणमन्दिर में देखिये :आस्ता-मचिन्त्य-महिमा, जिन संस्तुवस्ते ।
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रा-तपोपहत-पान्थ जनान्निदाघे
प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ अर्थ-हे देव ! आपके स्तवन की तो अचिन्त्य महिमा है ही पर आप का नाम मात्र भी जीवों को संसार के दुःखों से बचा लेता है । जैसे ग्रीष्म ऋतु में तीव्र घाम से सताये हुये मनुष्यों को कमल