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(१६) त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निवद्ध,
__पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर-भाजाम् । आक्रान्त-लोक-मलिनील-मशेषमाशु,
सूर्यांशु-भिन्नमिव शार्वर-मन्धकारम् ॥७॥ अर्थ-हे नाथ ! जिस तरह सूर्य की किरणों द्वारा रात्रि का समस्त अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी तरह आपके स्तोत्र से प्राणियों के अनेक भवों के बन्धे हुए पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं।
आचार्य कुमुदचन्द्र ने भी बड़े ही स्पष्ट शब्दों में इसी बात को कहा है :ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन,
देहं विहाय परमात्म-दशां व्रजन्ति । तीब्रानलादु-पल-भावमपास्य लोके,
. चामीकरत्व-मचिरादिव धातु-भेदाः ।।
- कल्याणमन्दिर स्तोत्र ॥१५॥ __ अर्थ -हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार अशुद्ध स्वर्ण अग्नि को तेज आंच से अपने अशुद्ध भाव को छोड़ केर शीघ्र सोना हो जाता है। उसी प्रकार आपके ध्यान से संसारी जीव भी शरीर को त्याग कर परमात्म-दशा को प्राप्त हो जाते हैं। श्री वांदीभसिंह सूरि के शब्दों में भक्ति का माहात्म्य देखिये :
श्रीपतिर्-भगवान् पुष्यात् भक्तानां वः समीहितम् । यद्भक्तिः शुल्कतामेति . मुक्ति-कन्या-कर-ग्रहे ।।
क्षत्रचूड़ामणि ॥ इसमें कहा है कि भगवान् की भक्ति मुक्तिरूपी कन्या का हाथ पकड़ाने--उसे प्राप्त कराने में कारण है। - स्तुति करते समय मानव जब तक अहंकार को न छोड़े तथा गुणों से प्रेम न करे, भगवान् के प्रति उसकी भक्ति हो ही नहीं