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किसलयितमनल्पं त्वद्विलोकाभिलाषा
त्कुसुमितमतिसान्द्र त्वत्समीप-प्रयाणात् । मम फलितममन्दं त्वन्मुखेन्दोरिदानी,
नयन-पथ-मनाप्ताद्देव पुण्य-द्र मेण ॥
जिन-चतुर्विंशतिका ।।१३।। अर्थ-हे भगवान् ! आपके दर्शन करने की इच्छा से पुण्य रूपी वृक्ष लहलहा उठता है। आपके पास जाने से उसमें फल लग जाते हैं। आपका साक्षात् दर्शन पा लेने पर उसमें फल लग जाते हैं । आप का दर्शन अत्यन्त पुण्य का कारण हैं। इसी बात को और अधिक स्पष्ट शब्दों में सुनिये- . जब चिन्तौ तव सहस फल, लक्खा गमन करेय । कोड़ाकोड़ि अनन्त फल, जब जिनवर दरशेय ॥
भगनान् के दर्शन का विचार करने पर हजार गुना पुण्य फल, मन्दिर की ओर गमन करने पर लाख गुणा फल तथा दर्शन करने पर करोड़ों गुना फल लगता है।
यद्यपि पाप और पुण्य दोनों बेड़ियां हैं। पर जब तक संसारी प्राणी इनसे ऊपर उठकर शुद्ध प्रवृत्ति में नहीं पहुंचता तब तक अशुभ की अपेक्षा शुभ में रहना योग्य है। शुभ प्रवृत्ति पुण्यबन्ध का कारण है। पुण्य से संसार की बड़ी से बड़ी विभूतियां तथा इन्द्र और चक्रवर्ती के पद तक प्राप्त हो जाते हैं ।
भक्ति–अपूर्व साधन कर्म की दश स्थितियां बताई गई हैं—बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण संक्रमण, सत्व, उदय, उदीरणा, उपशम, निधत्ति और निकाचना शुभ-अशुभ तीव्र-मन्द भावों के अनुसार नवीन बंधने वाले कर्मों के प्रभाव से पहले बंधे कर्मों में उलटफेर हो जाता है परन्तु निकाचित कर्म में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता। उसका अशुभ .