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________________ (१७) फल बड़े बड़े पुण्यात्माओं को भी भोगना ही पड़ता है। उस निकाचित कर्म को दूर करने का एक मात्र अपूर्व साधन वीतराग की भक्ति ही है। श्रोपाल का कुष्टरोग-निवारण इसका ज्वलन्त उदाहरण है। आत्म-गुण-स्मरण और आत्म-कल्याण वास्तव में संसार का प्रत्येक आत्मा उन्हीं गुणों से भरपूर है जो भगवान में हैं। भगवान के गुण प्रकट हो चुके हैं और भक्त के गुण अभी भी कर्मों से ढके हुए हैं। उन गुणों का चिन्तवन दूसरे रूप में अपने आत्मगुणों की ही श्रद्धा और चिन्तवन है। आचार्यों ने वीतरागी भगवान और आत्मा में शक्ति रूप से कोई भेद नहीं माना है । भक्त भगवान के दर्शन करते समय ऐसी भावना करता भी है कि: तुम में हम में भेद यह, और भेद कुछ नांहि । 'तुम तन तज परब्रह्म भये, हम दुखिया जग मांहि ।। . इसलिये अपने आत्मगुणों के चिन्तन और अनुभव के लिये भगवान के गुणों का स्मरण व भक्ति अत्यन्त आवश्यक और परम उपयोगी है । भक्ति के बिना श्रद्धान व ज्ञान होना कठिन है । श्री वादिराज मुनिराज अपने एकीभाव स्तोत्र में कहते हैं : शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वयनीचा, भक्तिों चेदनवघिसुखावञ्चिका कुञ्चिकेयम् । शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसोमुक्तिद्वारं परिदृढ-महा-मोह-मुद्रा-कवाटम् ॥१३॥ अर्थ-हे भगवान् ! आपको भक्ति ही तो सम्यग्दर्शन है जो कि अनन्त सुखों का कारण है और मुक्ति रूपी मन्दिर पर लगे हुए मिथ्यात्वरूपी ताले को खोलने के लिए चाबी की तरह है । जब तक यह भक्तिरूप सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता तबतक ज्ञान और चरित्र के रहते हुए भी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
SR No.002453
Book TitleBhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherShastra Swadhya Mala
Publication Year1974
Total Pages152
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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