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भक्ति और राग कहा जा सकता है कि भक्ति में राग होता है जो पाप बन्ध का कारण है। आचार्य समन्तभद्र ने स्वयम्भू स्तोत्र में इसका समाधान करते हुए लिखा है कि जिस प्रकार विष का एक कण समुद्र के जल को दूषित नहीं कर सकता, उसी प्रकार जिनेन्द्र भक्ति से इतना अधिक पुण्य बन्ध होता है कि यदि रंचमात्र पाप बन्ध हो भी तो वह हानिकर नहीं हो सकता।' ___भक्ति में जो राग होता है. वह मोह नहीं है जो पापबन्ध का कारण बन सके। मोह परवस्तु से होता है और सांसारिक स्वार्थ से पूर्ण होता है। वीतरागी की भक्ति में वह नहीं है क्योंकि वोतरागी से राग करने वाला स्वयं वीतरागी बनना चाहता है जो आत्मा का वास्तविक स्वभाव है, वह पर नहीं है। अतः वीतरागी की सच्ची भक्ति पापबन्ध नहीं कर सकती।
. भक्ति से पुण्यबन्ध तथा अपूर्व लाभ - सभी जानते हैं कि संसारी प्राणी आरम्भ ( घरेलू काम काज ) और परिग्रह ( सामान ) में फंसा हुआ है तथा रागद्वेषादि विकारों के कारण हर क्षण कर्म बन्ध करता रहता है। जितनी देर के लिये भी हमारा मन उस चक्कर से हट कर धर्मचर्चा भगवान के गुणस्तवन तथा आत्म चिन्तवन की और लग जाता है, एतनी देर के लिये हम पाप कर्मों के बन्ध से तो बचते ही हैं साथ ही स्तुति करते समय चित्त अत्यन्त गद्गद् हो जाता है। अपने अहम्भाव को भूल कर भगवान के चरणों में लग जाता है। अतः उस समय जो पुण्य बन्ध होता है उसके द्वारा बाधाओं का दूर हो जाना, विपत्तियों का टल जाना तथा सुख-शान्ति के साधन जुट जाना भी साधारण सी बात है।
भगवान के चिन्तवन, दर्शनेच्छा तथा दर्शन के फल का वर्णन करते हुए श्री भूपाल कवि ने लिखा है :