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________________ ( १४ ) प्रकार अरहन्त और सिद्ध भगवान रागद्वेष रहित होने पर भी भक्तों - को उनकी भक्ति के अनुसार फल देते हैं । अर्थात् चिन्तामणि और - कल्पवृक्ष की तरह भक्ति का फल देने में अचेतन ( रागद्वेष रहित ) हैं परन्तु उनके निमित्त से होने वाले पुण्योदय के कारण भक्त को भक्ति का फल मिल जाता है । यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि भक्ति में भगवान के गुणों के प्रति जो तल्लीनता होती है वह हृदय के रागद्वेष क्रोध मानादि समस्त विकारों को धो देती है तथा पापक्षय और पुण्यबन्ध करती है । भगवान के गुण इस कार्य में निमित्त पड़ते हैं । यद्यपि यह तल्लीनता भक्त के प्रयत्न का ही फल है पर यह निश्चित है कि भगवान के गुण-स्मरण के बिना उसका होना संभव नहीं है । अतः कृतज्ञता-वश यह कहा जाता है कि भगवान की कृपा से मुझे यह सफलता प्राप्त हुई । 'प्रसन्नेन मनसा उपास्य -मानो भगवान् प्रसन्न इत्यभिधीयते' अर्थात् प्रसन्न मन से उपासना करने वाला भक्त यह कहता है कि आज भगवान मेरे ऊपर प्रसन्न हैं । उसके मन में जो प्रसन्नता आई है वह भगवान के निमित्त से ही तो आई है । वह उसी प्रसन्न मन से भगवान को देखता है तो उसकी दृष्टि में भगवान भी प्रसन्न दिखते हैं | भगवान तो जैसे हैं वैसे ही हैं । वे न प्रसन्न हैं न अप्रसन्न । वास्तव में उपासक-भक्त का हृदय ही प्रसन्नता का प्रमुख कारण है, भगवान तो उसमें निमित्त मात्र हैं । पर भक्ति में निमित्त को मुख्यता दी जाती है और ऐसा कहा जाता है । इस प्रकार पवित्र भावों द्वारा की गई परमेष्ठी की भक्ति आत्मा में पवित्रता का संचार कर कार्य साधन कर देती है ।
SR No.002453
Book TitleBhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherShastra Swadhya Mala
Publication Year1974
Total Pages152
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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