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महाकवि धनञ्जय ने भी स्तुति करते हुए इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि भगवान पुण्य पाप से रहित होते हुए भी भक्तजनों में कारण हैं । यथा:
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पुण्यबन्ध
ततस्त्रिलोकी - नगराधिदेवं नित्यं पर अपुण्यपापं परपुण्यहेतुं नमाम्यहं
ज्योतिरनंत - शक्तिम् ॥ वन्द्यमवन्दितारम् ॥ विषापहार स्तोत्र ||३३॥
अर्थ – हे भगवन् ! आप तीन लोक के स्वामी हैं, आपका कभी भी विनाश नहीं होता, सर्वोत्कृष्ट हैं, केवलज्ञान रूप ज्योति से प्रकाशमान हैं, आप में अनन्त बल है, आप स्वयं पुण्य पाप से रहित हैं पर भक्त जनों के पुण्यबन्ध में निमित कारण हैं, आप किसी को नमस्कार नहीं करते पर सब लोग आपको नमस्कार करते हैं । मैं भी आपको नमस्कार करता हूं ।
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इस प्रकार विषापहार के ३८ वें छन्द में महाकवि कहते हैं : इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छायातरुं संश्रयतः स्वतः स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभः ॥ अर्थ – हे देव ! इस प्रकार स्तुति करके मैं दीनभाव से वरदान नहीं माँगता, क्योंकि आप उपेक्षक- रागद्वेष से रहित हैं । परन्तु वृक्ष का आश्रय लेने वाले को वृक्ष से छाया मांगनी नहीं पड़ती ( कि हे वृक्ष ! तुम मुझे छाया दो) छाया तो उसे स्वयं प्राप्त हो जाती है । यथा निश्चेतनाश् - चिन्तामणि- कल्पमहीरुहाः । कृत- पुण्यानुसारेण तदभीष्ट - फलप्रदाः ॥ तथार्हदादयश्चास्त-राग-द्वेष प्रवृत्तयः । भक्त भक्यनुसारेण स्वर्ग - मोक्ष - फलप्रदाः ॥
दशभक्त्यादि संग्रह ॥ ३-४॥ जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्ष अचेतन हैं फिर भी पुण्यवान पुरुषों को उनके पुण्योदय के अनुसार फल प्रदायक हैं । उसी
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