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. ( १२ ) आप पूजा से प्रसन्न होते। निन्दा से भी आपको कोई प्रयोजन नहीं क्योंकि आपकी आत्मा से द्वेष भाव बिल्कुल निकल चुका है । अतः स्तुति और निन्दा आपके लिये दोनों समान हैं। इसलिये स्तुति करके हमारा उद्देश्य आपको प्रसन्न करना तथा फिर आपसे कुछ चाहना . नहीं है बल्कि आपके गुणों का स्मरण करने से पाप दूर होते हैं तथा मन पवित्र होता है । इसी कारण मैं आपकी स्तुति करता हूँ।
श्री कुमुदचन्द्राचार्य ने भी इसी बात को कितने सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया है :हृद्वतिनि त्वयि विभो ! शिथिली-भवन्ति,
जन्तोः क्षणेन निविड़ा अपि कर्म-बन्धाः ।। सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभागमभ्यागते वन-शिखण्डिनि चन्दनस्य ।
कल्याणमन्दिर स्तोत्र ॥८॥ ___ अर्थ-हे जिनेन्द्र ! जिस तरह मयूर के आते ही चन्दन वृक्ष में लिपटे हुए सांप ढीले पड़ जाते हैं, उसी तरह जीवों के हृदय में आपका ध्यान आने पर उनके बड़े-बड़े कर्मबन्धन क्षण भर में ही ढीले हो जाते हैं। मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र !
रौद्ररुपद्रव-शतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरित-तेजसि दृष्टमात्रे
चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानः ॥
___कल्याण मन्दिर स्तोत्र ॥१६॥ ___ अर्थ-हे नाथ ! जिस प्रकार तेजस्वी मालिक के दिखते ही चोर चुराई हुई गायों को छोड़ कर शीघ्र ही भाग जाते हैं । उसी तरह आपके दर्शन होते ही अनेक भयंकर उपद्रव मनुष्यों को छोड़ कर भाग जाते हैं।