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गुण- स्तोकं सदुल्लंघ्य तद्- बहुत्व - कथा स्तुतिः । आनन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास् त्वयि सा कथम् ॥
अर्थ - वर्तमान गुणों की अल्पता को उल्लंघन करके जो उनके बहुत्व की कथा की जाती है- उनको बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया जाता है, लोक में उसे स्तुति कहते हैं । हे भगवान् ! वह स्तुति ( की परिभाषा ) आप में कैसे बन सकती है अर्थात् नहीं बन सकती । क्योंकि आप में अनन्त गुण होने के कारण वे गुण ही जब पूरी तरह कहे नहीं जा सकते फिर बढ़ा चढ़ाकर कहने की बात तो बहुत दूर है ।
भगवान अनन्त गुणों के भंडार हैं यह बात 'कल्याणमन्दिर' 'भक्तामर' आदि के प्रारम्भ में भी कही गई है । अतः उनके गुणों की स्तुति 'बात को बढ़ा चढ़ा कर की जाने वाली स्तुति नहीं है। वास्तविकता का ही थोड़ा सा वर्णन है और उससे फल मिलना भी स्वाभाविक है ।
वीतराग भगवान की भक्ति से लाभ कैसे होता है ?
यहाँ यह प्रश्न होता है कि जैन सिद्धान्तानुसार जब भगवान रागद्वेषादि से रहित हैं, वे किसी से न कुछ सम्बन्ध रखते हैं और न कुछ लेते देते हैं तो उनकी भक्ति, स्तुति आदि करने का प्रयोजन ही क्या हो सकता है तथा उससे लाभ भी क्या ? इसका उत्तर आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में दिया है : न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवान्तरे । तथाऽपि ते पुण्य-गुण- स्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ स्वयम्भू स्तोत्र ।।५७।
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अर्थ - हे भगवान् ! पूजा वन्दना से आपका कोई प्रयोजन नहीं । राग का अंश ही आपकी आत्मा में नहीं है जिसके कारण