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(१०) स्तवन को मुनियों के भी आवश्यक कार्यों में गिना गया है। जिनस्तुति का महत्त्व वर्णन करते हुए कहा गया है :
विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति, शाकिनी-भूत-पन्नगाः । विषं निविषतां याति, स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करने पर विघ्न समूह नष्ट हो जाते हैं, सब प्रकार के भूत प्रेत भाग जाते हैं तथा विष अपना कोई असर नहीं कर सकता।
एकापि समर्थेयं जिन-भक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्याणि च पूरयितुं दातुं मुक्ति-श्रियं कृतिनः ॥
समाधिभक्ति ॥८॥ अर्थ-जिनेन्द्र की अकेली भक्ति भी दुर्गति को दूर करने, पुण्य को बढ़ाने तथा भक्त को मुक्ति लक्ष्मी की प्राप्ति कराने में समर्थ है ।
अनन्तानन्त-संसार-सन्ततिच्छेद-कारणम् ।
जिनराज-पदाम्भोज-स्मरणं शरणं मम ॥ स.भ. १४।। अर्थ-भगवान जिनेन्द्र के चरण कमलों का स्मरण अनन्त संसार के कारणभूत कर्मों के समूह को नष्ट होने में कारण है । मुझे उन्हीं चरणों की शरण है।
साधारणतया संसार में 'बात को बढ़ा चढ़ा कर कहना' स्तुति कहलाती है। भगवान के गुणों को बढ़ा चढ़ाकर कहने से भक्त को पापक्षय आदि लाभ कैसे हो सकते हैं ? संसार के लोगों के विषय में बढ़ा चढ़ा कर कहने की बात तो चल सकती है, जबकि स्वाभिमानी व्यक्ति ऐसा करना भी अच्छा नहीं समझते, फिर भगवान के विषय में यह बात कहाँ तक उचित कही जा सकती है ? इस विषय में आचार्य समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भू स्तोत्र में भगवान अरहनाथ की स्तुति करते हुए बहुत सुन्दर लिखा है: