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________________ ( ७७ ) देवों द्वारा अर्च्य बुद्धि के धारी होने से तुम बुद्ध, तीनों जग के मंगल-कर्त्ता, अत: तुम्हीं हो शङ्कर शुद्ध, मोक्ष-पंथ की विधि के कारक, अतः विधाता हो जिनदेव ! और नरोत्तम भी तो तुम ही, स्पष्ट रूप से हो स्वयमेव ||२५|| तीनों जग के दुःख के हर्ता, तुझे झुकाता मैं निज सीस, हे भूतल के सुन्दर भूषण, तुझे झुकाता मैं निज सीस, तीन लोक के परम अधीश्वर, तुझे झुकाता मैं निज सीस, जगत - सिन्धु के शोषक हे प्रभु! तुझे झुकाता मैं निज सीस ॥ २६ ॥ , इसमें है आश्चर्य्यं कौन-सा सारे ही गुण तुझ में, देव ! नहीं दूसरा आश्रय पाकर समा गये हों यदि स्वयमेव ? तरह तरह का आश्रय पाकर जातगर्व दोषों ने, देव ! आकर तुझको सपने में भी नहीं कभी देखा, मुनिदेव ! ॥२७॥ होता है एकान्त सुशोभित सतत तुम्हारा, हे प्रभु धीर ! तरु अशोक के नीचे संश्रित कान्तिमान मल-हीन शरीर, जैसे रवि का बिम्ब सुशोभित घन-समीप होता सविशेष, करतीं जिसकी रश्मि - राशियाँ अंधकार का नाश, जिनेश! ||२८|| तुंग उदयगिरिके मस्तक पर छितराकर निज किरण-वितान, जैसे शोभित होता है वह दिवानाथ का बिम्ब महान्, वैसे ही लगता है निर्मल कनक - प्रभा-सा तेरा गात, मणि - मयूख- आभासे उज्ज्वल सिंहासन पर अति अवदात || २ || जिस पर शोभित कुन्द - पुष्प - से चंचल उज्ज्वल चामर कान्त, हेम प्रभा-सम तेरा वह तन शोभित होता है एकान्त, विधु-सी निर्मल, कनक - प्रभा-सी अतिशय सुन्दर हे जगदीश ! पड़ती है निर्भर जल-धारा सुर- गिरि-तट पर मानों, ईश ! ॥३०॥
SR No.002453
Book TitleBhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherShastra Swadhya Mala
Publication Year1974
Total Pages152
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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