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. (७८) ढक लेते जो भानु-प्रभा को लगते दिनकर-से द्युतिमान, जटित मोतियों के समूह से द्युति जिनकी संवृद्ध महान, तीन जगत पर परमेश्वरता तेरी जो बतलाते, देव ! माथे. पर के तीन छत्र वे लगते हैं अति रम्यः सदैव ॥३१॥ जिसके अति गम्भीर नाद से सभी दिशाएँ हैं परिपूर्ण, तीन जगत के लोगों को शिव-संग-विभव बतलाता पूर्ण, करता जो सद्धर्म विजय के जय-निनाद का घोष महान्, हे प्रभु, वही नगाड़ा नभ में तेरे यश का करता गान ॥३२॥ गन्धयुक्त जीवन के लघु कण जिसमें मिश्रित हैं अन्यून, पारिजात, मन्दार, नमेरू, सन्तानक के रम्य प्रसून, . मन्द हवा के साथ बरसते ऐसे होते हैं प्रतिभात, मानों तेरे 'दिव्य वचन' की माला ही झरती अवदात ॥३३॥ तीनों जग के द्युतिमानों की द्युति को करती है जो म्लान, दीप्तिमान तव भामण्डल की अतिशय उज्ज्वल दीप्ति महान, होकर द्युति में एक साथ ही उदित अनेकों सम-आदित्य, शशि से शोभित रम्य रात पर पाती है जय फिर भी नित्य ।३४। स्वर्ग-मुक्ति-पथ दिखलाने में जो अतिशय ही है निष्णात, सद्धर्म-तत्व' के बतलाने में तीनों जग में जो विख्यात, विशद अर्थमय सब भाषाओं में परिणत होने का, देव ! विद्यमान है स्वाभाविक गुण दिव्य-ध्वनि में तव जिनदेव ! ३५॥ विकसित स्वर्णिम सरसिज की सी द्युति जिनकी है अमल विशेष, छिटक रही है जिनके नख की चारों ओर छटा सर्विशेष, ऐसे सुन्दर पद-पद्मों को जहाँ-जहाँ रखते, जिनदेव ! वहाँ वहाँ रचते जाते है निर्मल नीरज नत हो देव ॥३६॥