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(७६) तेरा ही यह मुख-मण्डल जब करता तम का काम तमाम, दिन में रवि से, निशि में शशि से, कहो कौन सा फिर है काम ? खेतों का सब धान जगत में पक जाता जब भली प्रकार, वारि-भार से झुके मेघ-दल होते हैं तब सिद्ध असार ॥१९॥ . तुझमें जैसा सुन्दर लगता, हे जिनेश, शुचि निर्मल ज्ञान, हरिहर आदिक देवों में वह कभी न होता वैसा भान; महारत्न में जैसी मिलती निरुपम निर्मल छटा विशेष, नहीं काच में मिलती वैसी पड़ने पर रवि-रश्मि अशेष ॥२०॥ हरि-हर आदिक, उन देवों का दर्शन भी है श्रेष्ठ महान्; जिन्हें देखकर तुझमें ही इस मन को मिलती शान्ति महान् ; . यदि जन्मान्तर में न सके हर अन्य देवता मन को, ईश ! तुझे देखने का ही फल तब क्या हो सकता ? हे जगदीश ॥२१॥ कोटि-कोटि माताएँ जग में जनती हैं नित पुत्र अनेक, पर तुझ जैसे अनुपम सुत की अन्य न दिखती जननी एक; सभी दिशाएँ तारक-दल से शोभित होती हैं बहु भाँति, है पर प्राची एक दिशा ही जो जनती है दिनकर-कान्ति ॥२२॥ मुनिजन सारे तुझे मानते तिमिर-विनाशक दोष-विहीन ! रवि-सम परम तेज के धारी, परम पुरुष, हे राग-विहीन ! मत्युञ्जय भी हो सकते नर पाकर तुझको भली प्रकार, तुझे छोड़कर मोक्ष-मार्ग का नहीं श्रेष्ठ है कोई द्वार ॥२३॥ सभी सन्त बतलाते तुझको-"आद्य, अगोचर, सीमा-हीन, मदन-केतु, योगीश, योग के ज्ञाता, ईश्वर, दोष-विहीन; सर्वज्ञानमय, सर्ववस्तुगत, ब्रह्मा और असंख्य, अनेक, अविनाशी भी आदिहीन भी, और तुझे ही शाश्वत, एक” ॥२४॥