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(६४) युद्धस्थल में विद्ध गजों से, बहती जहाँ रक्त की धारजिसमें लथपथ होकर योद्धा, करते रहते युद्ध अपार ॥ महा-भयंकर शत्रु-पक्ष, को, देख सुभट बराते हैं । पर तव आश्रित शानदार जय-रूप वहाँ पाते उपहार ॥४३॥ तव गुण-चिन्तन से अय भगवन् ! नक्र चक्र से क्षुब्ध महान । वडवानल से पूर्ण, जहाँ पर, उठते हों भीषण तूफानं ॥ ऐसे अगम समुद्र मध्यः भी, बीच भंवर में पड़ी हुईनौका निर्भयता से तट पर, ले जाना होता आसान ॥४४॥ घोर जलोदर आदि रोग से, जिनकी दशा हुई दयनीय । भीषण दुख पा तजी जिन्होंने, जीवन की आशा रमणीय ।।.. ऐसे रुग्णे दुखी जन भी प्रभु, तव पद-रज-संजीवन से। . हो जाते हैं अहा ! मदन-सम, स्वस्थ और अतिशय कमनीय ।४५॥ सिर से पग तक जकड़ा जिनका, लोह शृङ्खलाओं से तन । दृढ़ बेड़ी से छिले जिन्हों के, दोनों घुटने और जघन ॥ ऐसे बन्दी भी श्रद्धा से, जप तप नाम मंत्र भगवन् ! हो जाते हैं धन्य ! स्वयं वे, निमिष मात्र में गत-बन्धन ॥४६॥ भगवन् ! तव निर्मल गुणस्तवन, करते रहते जो मतिमान । उनसे स्वामिन् ! डर भी डरकर, हो जाते हैं अन्तर्धान ।। सिंह समर, रुज, शोक, सिन्धु, फणि, गज, दावानल, कारागार । इन सबके भीषण दुःखों का हो जाता क्षण में अवसान ॥४७॥ हे जिनेन्द्र ! तब गुण-नन्दन की, क्यारी से चुनकर अभिरामविविध वर्ण कुसुमों की गूंथी, भक्तिमाल यह दिव्य ललाम ॥ "मानतुङ्ग" जो जन श्रद्धा से, इनसे कण्ठ सजाते हैं । मुक्तिरमा 'अवनीन्द्र" श्रीसह, विवश उन्हें वरती अविराम ।४८॥