________________
(६५) श्री भक्तामर भाषा पाठ
(श्री कमलकुमारजी शास्त्री 'कुमुद') भक्त अमर नत मुकुट सुमणियों, की सु-प्रभा का जो भासक । पापरूप अतिसघन तिमिर का, ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक ॥ भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलम्बन । उनके चरण कमल का करते, सम्यक बारम्बार नमन ॥१॥ सकल वाङ्मय तत्त्वबोध से, उद्भव' पटुतर धी-धारी । उसी इन्द्र की स्तुति से है, वन्दित जग-जन मन-हारी ॥ अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिनस्वामी की। जगनामी- सुखधामी तद्भव-शिवगामी अभिरामी की ॥२॥ स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ के लाज । विज्ञजनों से अचित हे प्रभु, मंदबुद्धि को रखना लाज ॥ जल में पड़े चन्द्र-मंडल को, बालक बिना कौन मतिमान । सहसा उसे पकड़ने वाली, प्रबलेच्छा करता गतिमान ॥३॥ हे जिन ! चन्द्रकान्त से बढ़कर, तव गुण विपुल अमल अतिश्वेत । कह न सकें नर हे गुण-सागर, सुर-गुरु के सम बुद्धिसमेत ॥ मक्र-नक्र-चक्रादि जन्तु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार । कौन भुजाओं से समुद्र के, हो सकता है परले पार ॥४॥ वह मैं हूँ कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार । करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वा-पर्य विचार । निज शिशु की रक्षार्थ आत्म-बल, विना विचारे क्या न मंगी। जाती है मृगपति के आगे, शिशु-सनेह में हुई रँगी ॥५॥ अल्पश्रुत हूँ श्रुतवानों से, हास्य कराने का ही धाम । करती है बाचाल मुझे प्रभु, भक्ति आपकी आठों याम ॥