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पड़ते जहां, वहीं रचते हैं, सुरगण स्वर्ग कमल अविराम । जिनकी सुषमा लख होता है, जगती-तलका प्रमुदित मन ||३६|| मूर्तिमती ऐसी विभूतियां, धर्म देशना समकालीन - मिली तुम्हें, वैसी न स्वप्न में, प्राप्त कर सके देव मलीन ॥ सच है, निविड निशातम - नाशक, मार्त्तण्ड-सम प्रभा प्रचण्डकर सकता है प्राप्त कहाँ से, झिलमिलात तारक- दल दीन |३७| जिसके लोल कपोल मलिन हों, बहने से भर भर मदधार । मत्त मधुप-दल ने भन भन कर, जिसे किया हो क्रुद्ध अपार ॥ यों उद्धत गर्जनकर आता-लख ऐरावत सम गजराज । भव्य न होते भीत, जिन्होंने - लिया तुम्हारा शरग उदार । ३८। छिन्न भिन्न कर मत्त गजों के, जिसने उन्नत गण्डस्थल । रक्तसने मोती बिखराकर, चकित किया हो जगतीतल || ऐसा भीषण भीम केसरी, भी न वार कर सकता है । उस जनपर, जिसने श्रद्धासे, पकड़ लिया प्रभु ! तव अंचल | ६ | धधकाता हो जिसे प्रलय-सम, प्रबल वायु का वेग गहन । ज्वलित अग्नि कण उड़ें, कि जिनसे, छा जावे सम्पूर्ण गगन || यों दावानल लगे कहीं यदि, कर दे जो कि चराचर भस्म । किन्तु उसे भी तव यशगायन, कर देता है शीघ्र शमन ||४०|| क्रुद्ध, रक्तदृग, महाभयंकर, काला कोकिल कंठ समान । ऊंचा फण कर फणि आता जब, वीरों के कँपते हैं प्राण ॥ किन्तु प्रभो ! जिसके मन में तव, नाम रूप अहि-दमनी है । हो निद्वंद्व चला जाता वह, फणि पर पद रख सिंह समान ॥४१॥ एक ओर गज गर्ज रहे हों, हींस रहे हों हय चहुँ ओर । डटी हुई हो वीर नरेशों की सेना रव करती घोर ॥ किन्तु दूसरी ओर अकेला, शक्तिहीन जन जप तव नामउन सबको क्षण में क्षय करता, ज्यों रवि घोर निशातम भोर ॥ ४२ ॥