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चरित्र के कर्ता गौरवदास और प्रसिद्ध कृपण-चरित्रं तथा नेमिश्वर की बोली के कर्ता कवि ठाकुरसी, धर्मदास के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। कवि ठकरसी के पश्चात् १७वीं शती में तो हिन्दी जैन कवि, लेखक, ग्रन्थकार, टीकाकारों की बाढ़सी आ गई और हिन्दी जैन धार्मिक साहित्य के साथ ही अन्य अनेक विषयों में रचनाएँ और अनुवाद ग्रन्थ लिखे गये । जैन, विद्वान परम्परा में इस हिन्दी काल में विविधमुखी और विविध विषयक रचनाएँ करके हिन्दी जैन साहित्य को विपुल और विविध विषयक बनाया।
हिन्दी जैन साहित्य विकास की दृष्टि से तो वि. १६ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध पर्यन्त हमने अपभ्रंश-हिन्दी काल माना है, परन्तु विषय की दृष्टि से जैसा हिन्दी जैनेतर साहित्य में वि. चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग से भक्ति काल का जो प्रारम्भ होना माना गया है वैसा हमको कोई काल निर्धारित करने के लिए बाधित नहीं होना पड़ा है । कारण कि जैन साहित्य समयानुसारी नहीं, वरन् शाश्वत धर्मानुसारी ही अधिकतर प्रधान रहता है । हाँ; रचनाओं में वेग और शैथिल्य देश, काल और स्थिति के ही कारण बढ़ते-घटते अवश्य रहते है।
चौदहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में उत्तर भारत में सर्वत्र मुस्लिमराज्य स्थापित हो चुके थे । राजपूत राजा या तो उनके आधीन हो चुके थे या अशक्त होकर शिथिल से बन चुके थे । कभी-कभी तलवार भी चमक उठती थी; परन्तु वह किसी-किसी और अमुक स्थल में ही । मुस्लिम शासकों ने यवन-राज्यों की स्थापना करके ही विश्राम लेना नहीं सोचा था । अब वे बलप्रयोग से यहाँ के निवासियों को मुसलमान बनाने पर तुल उठे थे । राजाजन तो अबल हो चुके थे और प्रजा भी सर्व प्रकार असहाय थी । ऐसी धर्मसंकटकी स्थिति में ईश्वर के भक्त ईश्वर की उपासना के सिवाय
और क्या कर सकते थे और हमारे स्याद्वाद के विद्वान आत्मधर्म और मानवोचित व्यवहार का उपदेश देने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकते थे । जैनेतर संत और भक्तों का एक समुदाय निकला जिसमें नामदेव, रामानन्द, रैदास, कबीर, धर्मदास, नानक, शेख फरीद, मलूकदास, दादुदयाल
और सुन्दरदास के नाम उल्लेखनीय हैं । मुसलमानों के भीतर से भी एक दल निकला जिसने प्रेम-पंथ का प्रचार किया । प्रेम-पंथ सुफी मत के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है । जैन विद्वान साधु और आचार्यों ने अपने तत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिये । सर्वत्र भारत में उन्होंने विहार करके मानव-धर्म को समझाया; यवन-राजाओं की राज्य-परिषदों में, बादशाहों के हजूरगाह में जाकर उन्होंने धर्म-सहिष्णुता और अभयदान का महत्त्व समझाया । जो संत-साहित्य, भक्त
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 79