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________________ चरित्र और संवेगसुन्दर ने सं. १५४८ में - “सारसिखामणरास” की हिन्दी रचनाएँ की हैं। ऊपर अब तक जो हमने लिखा है उसका सार इतना ही है कि "प्राकृत से अपभ्रंश भाषा का उद्भव हुआ और "अपभ्रंश से आधुनिक बोलियों का निर्माण हुआ । हिन्दी भी आधुनिक बोलियों में एक बोली है । हिन्दी का उद्भव अपभ्रंश से है और हिन्दी का विकास अपभ्रंश में ही हुआ है | हिन्दी में हम अनेक भाषाओं के शब्द देखते हैं, परन्तु इस पर वह अन्य भाषा से संभूत हुई नहीं मानी जा सकती । हिन्दी भाषा के विकास के अध्ययन के लिए अपभ्रंश का साहित्य बहुत उपयोगी है, क्योंकि "अपभ्रंश में प्राचीन अथवा आदि हिन्दी कहा जाने वाला स्वरूप यथावत् विद्यमान है और अपभ्रंश में प्राचीन हिन्दी-गद्य सुरक्षित है । उपलब्ध हिन्दी जैन साहित्य जैनेतर हिन्दी साहित्य से मिलाने बैठेंगे तो वहाँ थोड़ा अन्तर काल के निर्धारण में पड़ा हुआ मिलेगा । कारण स्पष्ट है - जैन विद्वान अपभ्रंश के पंडित थे और अपभ्रंश में अनेक उपयोगी धर्मग्रंथ रचे जा चुके थे और जैनेतर हिन्दी विद्वान अपभ्रंश के न तो पंडित ही थे और न उनके धार्मिक ग्रन्थ ही इसमें रचित थे, अतः जैनेतर हिन्दी विद्वान वि. १४ वीं शताब्दी से ही हिन्दी में ठोस रचनाएँ कर सके । हिन्दी जैन विद्वानों को अपभ्रंश के गाढ़ प्रभाव से मुक्त होने में अधिक समय लगना स्वाभाविक है, अतः हिन्दी जैन विद्वानों की हिन्दी कही जानेवाली रचनाएँ वि. १४ वीं शताब्दी से प्रारम्भ नहीं हो कर वि. १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारंभ हई मिलती हैं अर्थात हिन्दी जैन विद्वान वि. १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पूर्णतः अपभ्रंश मुक्त हिन्दी रचना करने लगे। ___अन्य प्रान्तीय लोक-भाषाओं में भी जैन विद्वानों ने रचनाएँ की हैं । श्वेताम्बर साधु और आचार्यों की राजस्थान, मालवा, गुर्जर अधिकतर विहार भूमि रही है। उन्होंने राजस्थानी और गुर्जर भाषाओं में भी इन शताब्दियों में बड़े महत्त्व के कई ग्रन्थ लिखे हैं । राजस्थानी और गूर्जर भाषा अन्य लोक भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी के अधिक निकट मानी जाती हैं; अतः मरु-गूर्जर जैन साहित्य भी हिन्दी के लिए एक बहुत बड़ी देन और महत्त्व की वस्तु है । हिन्दी-काल - हिन्दी जैन साहित्य की दृष्टि से यह काल वि. १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से वि.सं. १९वीं पर्यन्त माना गया है । हिन्दी का उत्कर्षरूप इस काल के प्रारम्भ में बनने लगता है जो इसके अन्त में आधुनिक रूप में परिवर्तित हुआ है । इस काल के हिन्दी जैन विद्वानों में वि. सं. १५८१ में “यशोधर 78 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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