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(१) हिन्दी जैन साहित्य से संबंधित कुछ सर्वसाधारण व
प्रास्ताविक तथ्य
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्णविषयक रचनाओं का स्वरूप, इयत्ता, प्रकार और महत्त्व कैसा था, यह समझने के लिए सबसे पहले उस साहित्य से संबंधित कुछ सर्व-साधारण और प्रास्ताविक तथ्यों पर लक्ष्य देना आवश्यक होगा।
समय की दृष्टि से हिन्दी जैन साहित्य वि० १० वीं शताब्दी से लेकर आधुनिक युग तक है । इसको हमने निम्न समय-क्रम से विभाजित किया है - अपभ्रंश हिन्दी - वि० १०वीं शताब्दी से १६ वीं के पूर्वार्द्ध
पर्यन्त । हिन्दी - वि० १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से वि० १९
वी शताब्दी पर्यन्त । आधुनिक हिन्दी - वि० २० वीं शताब्दी । अपभ्रंश-हिन्दी काल
वि० छट्ठी शताब्दी से १२ वी पर्यन्त तो अपभ्रंश का स्वर्णयुग ही रहा और १६वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध-पर्यन्त जैन साहित्य में अपभ्रंश प्रभावित रचनाएँ होती रहीं । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने हिन्दी साहित्य का आदिकाल इतिहास में हिन्दी का आदिकाल ७ वीं शताब्दी ई० से १४ वीं पर्यन्त माना है जो उपयुक्त ही है । क्योंकि वहाँ तो १५ वीं शताब्दी से ही भक्तिकाल प्रारम्भ हो जाता है जिसमें भक्त और प्रेममार्गी कवियों की हिन्दी में ठोस रचनाएँ होने लग गई थीं । हिन्दी जैन कवियों ने अपनी रचनाएँ जब कि प्रारम्भ ही की थीं । हिन्दी जैन साहित्य में भी उसको हिन्दी का आदिकाल अथवा प्राचीन हिन्दी-काल ही कहा है, और समय भी उतना ही माना है, जो अपभ्रंश प्रभावित रचनाओं के प्राचुर्य पर हिन्दी जैन साहित्य की दृष्टि से उतना स्पष्ट और अर्थपूर्ण नहीं है जितना अपभ्रंश हिन्दी काल कहना ।
भले हिन्दी साहित्य विशारदों ने अपभ्रंश को “आदि हिन्दी अथवा प्राचीन हिन्दी कहा है, परन्तु अपभ्रंश प्रभावित इस काल को ये नाम देना न स्पष्ट है, और न अर्थपूर्ण । अपभ्रंश-हिन्दी काल से सीधा अर्थ निकलता है कि अपभ्रंश प्रभावित हिन्दी रचनाओं का काल ।
74 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास