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________________ “अपभ्रंश का साहित्य महान् विपुल, विविध विषयक और विविधमुखी है । अपभ्रंश की प्रांजलता इसके महाकाव्यों में देखने को मिलती है । इसके काव्यों में इसके समृद्धता के दर्शन होते हैं । इसके खण्डकाव्यों में जीवन के अनेक रूपों की विविध भाँति से जो अभिव्यंजना हुई है, वह बहुत ही रोचक और प्रभावक है । पिछले वर्षों में जैन विद्वान मुनि जिनविजयजी, आदिनाथ, उपाध्याये, डॉ० हीरालाल, डॉ० परशुराम वैद्य, पं० लालचन्द्र भगवान गांधी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन 'प्रभृत्ति विद्वानों ने अपभ्रंश साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया । कुछ ने अनेक अपभ्रंश ग्रन्थों का प्रकाशन किया है और इसका हिन्दी साहित्य में विकास के इतिहास पर गहरा प्रभाव ही नहीं पड़ा, वरन् वहाँ इसके अभाव में जो गड़बड़ हो गई थी, वहाँ अब स्पष्ट प्रतिलक्षित होने लगी है । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीजी ने अपने “हिन्दी साहित्य का आदिकाल नामक ग्रंथ में स्पष्ट कहा है- जब तक इस विशाल उपलब्ध साहित्य को सामने रखकर इस काल के काव्य की परीक्षा नहीं की जाती, तब तक हम इस साहित्य का ठीक-ठीक मर्म उपलब्ध नहीं कर सकते । इधर उधर के प्रमाणों से कुछ कह देना, कुछ पर कुछ का प्रभाव बतला देना न तो बहुत उचित है और न बहुत हितकर । यह कहना होगा कि आज, अपभ्रंश का साहित्य जो कुछ भी उपलब्ध है वैसा ८०-९० वर्ष पूर्व प्राप्य नहीं था। तभी तो प्रसिद्ध भाषाशास्त्री जर्मन विद्वान पेशल को यह अनुभव करके बहुत ही दुःख हुआ था कि अपभ्रंश का समृद्ध और विपुल साहित्य खो गया है । ___ जैन साहित्य-सेवियों की प्रत्येक युग और प्रत्येक काल में विशेष अथवा साधारण कुछ ऐसी परंपराएँ रहती हैं, जो समय की कड़ी से कडी मिला कर आगे-आगे चली जाती हैं । जैन साहित्य को समृद्ध बनाने की दृष्टि से, उसको विविधमुखी एवं विविधविषयक करने की दृष्टि से विद्वान ग्रन्थकार की परंपरा रही है । इस परंपरा का कर्तव्य यही रहता है कि वह आगमों का स्वाध्याय करे, लोक-जीवन का अध्ययन करे, जैनेतर साहित्य का अनुशीलन करे और मौलिक ग्रन्थ लिखे, टीकाएँ बनावे, भाष्य रचे आदि । दूसरी परम्परा है ज्ञान-भण्डार-संस्थापन-परम्परा । इस परंपरा का उद्देश्य समृद्ध जैन साहित्य की रक्षा करने का है । साहित्य की सुरक्षा की दृष्टि से यह ज्ञान-भण्डार की स्थापना करती है और वहाँ जैन-जैनेतर साहित्य प्रतिष्ठित होकर सुरक्षित रहा है । जैन ज्ञान-भण्डारों का महत्त्व आज सर्वविदित हो चुका है। तीसरी परम्परा है लोक-भाषा अंगीकरण की । जैन विद्वान अथवा ग्रन्थकर्ता जिस युगमें जो जन-साधारण की सर्वप्रिय भाषा हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास • 75
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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