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पास सभी अन्यान्य शस्त्र और अस्त्र समाप्त हो गये तब उसने अन्तिम शस्त्र के रूप में चक्र शस्त्र को हाथ लगाया । उसे आकाश में घुमाकर ज्यों ही श्रीकृष्ण पर चक्र का प्रहार किया कि एक क्षण में दर्शक स्तंभित हो गये । किन्तु चक्र श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा देकर उन्हें बिना कष्ट दिये उनके पास अवस्थित हो गया । श्रीकृष्ण ने उसे अपने हाथ में ले लिया । उसी समय "नौवाँ वासुदेव उत्पन्न हो गया है" ऐसी उद्घोषणा हुई ।
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श्रीकृष्ण ने दया लाकर जरासंध से कहा - "अरे मूर्ख ! क्या यह भी मेरी माया है ! अभी भी तू जीवित घर चला जा, मेरी आज्ञा का पालन कर और व्यर्थ के श्रम को छोड़कर अपनी संपत्ति भोग । वृद्धावस्था आने पर भी जीवित रह ।
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जरासंधने कहा- “कृष्ण ! यह चक्र मेरे सामने कुछ भी नहीं है । मैंने इसके साथ अनेक बार क्रीड़ा की है । यह तो लघु पौधे की तरह उखाड़ कर फेंका जा सकता है 1 तू चाहे तो चक्र को फेंक सकता है।" फिर श्रीकृष्ण ने
१- (क) जाते सर्वास्त्रवैफल्ये वैलक्ष्यार्षपूरितः ।
चक्र सस्मार दुर्वारमन्यास्त्रैर्मगधेश्वरः ।। ...नवमो वासुदेवोऽयमुत्पन्न इति घोषितः ।
गंघांबुकुसुमवृष्टि कृष्णे व्योम्नोऽमुचत्सुराः ।।
(ख) हरिवंश पुराण ५२ / ६७/६०१ / (ग) चक्र किस्ने के आयौ पासि ।
तीन प्रदक्षिणां दीन्हीं तासि । दक्षिणं कर मधि आयौ जवै ।
स्रव राजा सुषं मान्यू तवै ।
जैजैकार सकल सुर करे ।
इह नवमूं हरि इम उच्चरे ॥
चक्र निहार्यौ हरि कर माँहि ।
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. ८३५ हरिवंशपुराण: खुशालचन्द काला
-त्रिषष्टि० ८/७/४४६ - ४५७
जरासंध विकल्प उपजाहिं ||
- ८३७ - हरिवंशपुराण: खुशालचन्द काला ।
मैं तीना षंड को स्वामी । सव अव नपती मैं मानी ॥ आग्या लंघे नहीं कोई। सब ही मेरे वंसि होई
- ८३९ - हरिवंशपुराण: खुशालचन्द काला ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास
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