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मन्द हास्यपूर्वक "ओम्" कह कर इस युद्ध में प्राप्त होनेवाली विजय की सूचना दी । श्रीकृष्ण युद्ध के लिए समुद्यत हो गये । किन्तु प्रस्तुत वर्णन त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, भव-भावना, हरिवंशपुराण, उत्तर पुराणं आदि अन्य ग्रंथों में नहीं है । श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार तो नेमिनाथ उस समय गृहस्थाश्रम में थे, वे उस युद्ध में साथ रहे हैं, अतः उनके द्वारा स्वीकृति देना संभव हो सकता है । क्योंकि वे गृहस्थाश्रम में तीन ज्ञान के धारक थे । वे यह भी जानते थे कि प्रतिवासुदेव के साथ वासुदेव का युद्ध अनिवार्य रूप से होता ही है, प्रतिवासुदेव पराजित होते हैं और वासुदेव की विजय होती है । २
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श्रीकृष्ण ने गरुडव्यूह की रचना की । भ्रातृस्नेह से उत्प्रेरित होकर अरिष्टनेमि युद्ध स्थल पर साथ में आये हैं, यह जानकर शक्रेन्द्र ने मातली नामक सारथी के साथ अपना रथ उनके लिए भेजा। दोनों ओर से भयंकर युद्ध प्रारंभ हुआ। दोनों ओर के सैनिक अपनी वीरता दिखाने लगे । बाणों की वर्षा होने लगी । जरासंध के पराक्रमी योद्धाओं ने जब वीरता दिखलायी तो यादव भी पीछे न रहे । उन्हों ने भी जरासंध की सेना को तितर-बितर कर दिया । जब जरासंध की सेना भागने लगी तब स्वयं जरासंध युद्ध के मैदान में आया, और उसने समुद्रविजयजी के कई पुत्रोंको मार दिया । उस समय उसका रूप साक्षात् काल के समान था । यादव सेना इधर उधर भागने लगी तब बलराम ने जरासंध के अट्ठाइस पुत्रों को मार दिया । यह देख जरासंध ने बलराम पर गदा का प्रहार किया, जिससे रक्त का वमन करते हुए बलराम भूमि पर गिर पड़े । उस समय यादव सेना में हाहाकार मच गया । पुनः जरासंध बलराम पर प्रहार करने को आ रहा था कि वीर अर्जुन ने जरासंध को बीच में ही रोक दिया । इस बीच श्रीकृष्ण ने जरासंध के अन्य उनहत्तर पुत्रों को भी मार डाला । अपने पुत्रों को दनादन मारते हुए. देखकर जरासंध कृष्ण पर लपका । उस समय चारों ओर यह आवाज फैल गई कि "कृष्ण मर गये हैं ।" यह सुनते ही मातली सारथी ने अरिष्टनेमि से नम्र निवेदन किया – “प्रभु ! आपके सामने जरासंध की क्या हिम्मत है । स्वामी ! यदि आपने इस समय जरा भी उपेक्षा की तो यह यादव कुल नष्ट
१ - खुशालचन्द कालाः हरिवंशपुराण ७७० - ७७१ - पृ० १८४ | हिन्दी हस्तलिखित | २- त्रिषष्टि० ८/७/२४२-२६० ।
३- भ्रातृ - स्नेहाद्युयुत्सु च शक्रो विज्ञाय नेमिनम् । प्रैषीद्रथं मातलिना जैत्रशस्त्रांचितं निजम् ॥
- त्रिषष्टि० ८/७/२६०-२६१ ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास
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