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________________ मारते हैं। ___महाभारत के अनुसार जरासंध का युद्ध कौरव-पाण्डवों के युद्ध से पहले हुआ था। वैदिक मान्यता के अनुसार उस युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया । गीता वैदिक परम्परा का एक अद्भुत ग्रन्थ है । संत ज्ञानेश्वर ने कहा है-गीता विवेक रूपी वृक्षों का अपूर्व बगीचा है । वह नवरस रूपी अमृत से भरा समुद्र है । लोकमान्य तिलक ने लिखा-गीता हमारे धर्मग्रन्थों में एक अत्यन्त तेजस्वी और निर्मल हीरा है । महर्षि रवीन्द्रनाथ ठाकुर का अभिमत है कि, गीता वह तैलजन्य दीपक है जो अनन्तकाल तक हमारे ज्ञानमंदिर को प्रकाशित करता रहेगा। बंकिमचन्द्र का मानना है कि, गीता को धर्म का सर्वोत्तम ग्रन्थ मानने का यही कारण है कि उसमें ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों योगों की न्याययुक्त व्याख्या है। महात्मा गांधी गीता को माता व सद्गुरु मानते थे । जैन ग्रन्थों में कुरुक्षेत्र में गीतोपदेश की कोई चर्चा नहीं मिलती । कुछ समीक्षकों का मत है कि गीता का उपदेश वास्तव में कुरुक्षेत्र में युद्ध के समय का उपदेश नहीं है, किन्तु युद्ध का रूपक बनाकर वह भारतीय जीवन दृष्टि का महत्त्वपूर्ण किया गया विश्लेषण है। . कुछ भी हो, गीता भारतीय चिन्तन एवं जीवनदर्शन की एक अमूल्य मणि है, इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते । (ठ) जरासंध युद्ध (क) आचार्य हेमचन्द्र रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र एवं आचार्य मल्लधारी हेमचन्द्र रचित भव-भावना व यति रत्नसुन्दर रचित अमम स्वामी चरित्र के अनुसार कितने ही व्यापारी व्यापारार्थ यवन द्वीप के समुद्र के रास्ते द्वारका नगरी में आये । द्वारका के वैभव को देखकर वे चकित हो गये । रत्नकम्बल के अतिरिक्त वे जितनी भी वस्तुएँ लाये थे, सभी उन्हों ने द्वारका में बेच दीं । रत्नकम्बलों को लेकर वे राजगृह नगर पहुँचे । वे रत्नकम्बल उन्होंने जीवयशा को बताए । जीवयशा को कम्बल पसन्द आए और उसने आधी कीमत में लेना चाहा । व्यापारियों ने कहा- यदि हमें इतने कम मूल्य में देने होते. तो द्वारका में ही क्यों न बेच देते, जहाँ पर इससे दुगुनी कीमत आ रही थी। १- त्रिषष्टि०-८/७/१३४-१४८ । २- भव-भावना, गा० २६५९-२६६५, पृ० १७६ १७७ । हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 61
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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