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द्वितिय अध्याय
"हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण कथा का स्वरूप, उसकी रूपरेखा तथा प्रमुख घटनाएँ"
भूमिका : कृष्ण की लीलाएँ प्रत्येक युग में नये-नये सन्दर्भों और रहस्यों की सृष्टि करती रही हैं । कृष्ण ने एक अकल्पनीय गति और अप्रतिहत प्रवाह से अपने समय की गतिविधियों को संचालित किया था । उस समय बड़े-बड़े अत्याचारी कंस, जरासंध, शिशुपाल और दुर्योधन जैसे दुर्धर्ष और दुर्दमनीय योद्धा विभिन्न क्षेत्रों पर अपना आंतक जमाए थे । कृष्ण ने इन सबकी शक्ति और गति को अपनी विलक्षण प्रभविष्णुता और तेजस्विता से बाधित किया था । बड़े-बड़े शत्रुओं को उन्होंने अपनी असीम निजी शक्ति के बल पर परास्त किया था ।
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इस अध्ययन में हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण - कथा का स्वरूप, उसकी रूपरेखा तथा कृष्ण के जीवन से संबंधित प्रमुख घटनाओं का वर्णन भी दिया गया है; जिनको आधार मानकर बाद में विपुल हिन्दी जैन साहित्य की रचना की गई । ये घटनाएँ कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन की कथा प्रदर्शित करती हैं तथा बताती हैं कि किस प्रकार अपने अदम्य साहस और सद्गुणों के बल पर कृष्ण विजयी हुए । उनके जीवन की विभिन्न घटनाएँ, उनके विभिन्न स्वरूपों को उद्घाटित करती हैं । उनकी बालपन की घटनाएँ जो गोकुल और वृन्दावन में घटित हुईं, उनके सुन्दर, प्रतिभाशाली, चमत्कारी, रसिक और रोचक व्यक्तित्व को प्रकट करती हैं । उनका दूसरा रूप मथुरा का है जहाँ उन्होंने कंस और उनके साथियों का वध करके वहाँ के जन-समाज को अत्याचार से मुक्त किया और उग्रसेन को राज्य दिया । उनका तीसरा स्वरूप हस्तिनापुर और कुरुक्षेत्र का है, जहाँ कृष्ण ने कौरवों और पाण्डवों के बीच समझौता करने का प्रयत्न किया, पाण्डवों के दूत बने और दुर्योधन के न मानने पर कुरुक्षेत्र में रण का शंखनाद घोषित किया । उनका चौथा रूप द्वारका का है, जहाँ उन्होंने यादवों को सुसंगठित और व्यवस्थित कर एक उत्तम राज्य का निर्माण किया और वहीं से यादवों के पारस्परिक लड़ाई-झगड़े से क्षुब्ध होकर कृष्ण ने वन को प्रयाण किया और जराकुमार के शराघात के परिणाम स्वरूप अपनी लोक-लीला समाप्त की ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास
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