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________________ प्रतोली के द्वार खुल गए । दीपिका को धारण किया हुआ एक वृषभ उसके आगे आगे चलता था । उसके आते ही यमुना-जल दो भागों में विभक्त हो गया । हरि यशोदा को सौंपा गया । यशोदा की पुत्री को बदले में लेकर हलधर और वसुदेव कृतार्थ हुए । गोपबालिका को लाकर उन्होंने कंस को दे दिया, मगर विन्ध्याचल का अध्मि यक्ष उसको उठाकर विन्ध्य में ले गया। जैसे गगन में बालचन्द्र का वर्धन होता है, वैसे गोष्ठ के प्रागण में गोविन्द का संवर्धन होता रहा । जैसे कमलसर में स्वपक्ष-मण्डन, निर्दूषण कोई राजहंस की वृद्धि हो वैसे ही हरिवंश-मण्डल, कंसखण्डन हरिनन्द के घर वृद्धि पाते रहे । ___ इसके बाद के कडवक में कृष्ण की उपस्थिति के कारण गोकुल की प्रत्येक विषय में जो श्रीवृद्धि एवं मथुरा की श्रीहीनता हुई उसका निरूपण है । आमने-सामने आती हुई पंक्तियों में गोकुल और मथुरा इन दोनों स्थानोंकी परस्पर विरुद्ध परिस्थितियाँ ग्रथित कर के यह निरूपण किया गया है । ___ पांचवीं संधि के प्रथम कडवक में बालकृष्ण को नींद नहीं आती है और वे अकारण रोते हैं, इस बात को एक सुन्दर उत्प्रेक्षा के द्वारा प्रस्तुत की गई है । कवि बताते हैं कि कृष्ण को इस चिन्ता से नींद नहीं आती. थी कि पूतना, शकटासुर, यमलार्जुन, केशी, कालिय आदि को अपना पराक्रम दिखाने के लिए कब तक प्रतीक्षा करनी होगी । इसके बाद के कड़वव, में सोते हुए कृष्ण की घुरघुराहट के प्रचण्ड नाद का वर्णन है । पाँचवीं संधि के शेष भाग में बालकृष्ण के पूतनावध से लेकर कमल लाने के लिए कालिन्दी के हृद में प्रवेश करने तक का विषय है । छठी संधि के आरम्भ के चार कडवक कालियमर्दन को दिए गए हैं । शेष भाग में कंसवध और सत्यभामा-विवाह है। विषम लीला करता हुआ विषधर कृष्ण के प्रति लपका । कलिकाल और कृतान्त जैसे रौद्र कालिय रे कालिन्दी जितना अंग फैलाया । जलचर और जलतरंग प्रतीप गमन करने लगे । उसके फणामणि से किरणजाल का विस्फुरण होने लगा । फुत्कार से वह भवनों के अंतराल को भर देता था । उसके मुखहर से निकलते हुए निश्वासों की झपट से पहाड़ भी काँपते थे । उसकी दृष्टि की अग्निज्वाला से देवगण भी जलते थे । उसके विष से यमुना का जल-प्रवाह दषित हो गया । कृष्ण की अवगणना करके दर्पोद्धत कालिय ने प्रचण्ड वाल को ऊँचा उठाया : मानो यमुना ने अपने भुजदण्ड पसारे । यह कोई अजेय पन्नग उत्पन्न हुआ है । उस पर हे नाथ, निःशंक होकर प्रहार करो । तब उग्र विषवमन करते हुए उगने हरि के 34 . हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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