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सुन्दर था । वे लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त थे । उनका शरीर दस धनुष लम्बा था । देखने में बड़े ही कान्त, सौम्य, सभग - स्वरूप और अत्यन्त प्रियदर्शी थे । वे प्रगल्भ, धीर और विनयी थे । सुखशील होने पर भी उनके पास आलस्य फटकता नहीं था ।
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उनकी वाणी गम्भीर, मधुर और प्रीतिपूर्ण थी । उनका निनाद क्रौंच पक्षी के घोष, शरद ऋतु की मेघ - ध्वनि और दुंदुभि की तरह मधुर व गम्भीर था । वे सत्यवादी थे ।
उनकी चाल मदमत्त श्रेष्ठ गजेन्द्र की तरह ललित थी । वे पीले रंग के कौशेय - वस्त्र पहना करते थे । उनके मुकुट में उत्तम धवल, शुक्ल, निर्मल कौस्तुभ मणि लगा रहता था । उनके कान में कुंडल, वक्षस्थल पर एकावली हार लटकता रहता था । उनके श्रीवत्स का लांछन था । वे सुगन्धित पुष्पों की माला धारण किया करते थे ।
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वे अपने हाथ में धनुष रखा करते थे, वे दुर्धर धनुर्धर थे । उनके धनुष की टंकार बड़ी ही उद्घोषकर होती थी । वे शंख, चक्र, गदा, शक्ति और नन्दक धारण करते थे । ऊंची गरुड़ ध्वजा के धारक थे ।
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वे शत्रुओं के मद को मर्दन करने वाले, युद्ध में कीर्ति प्राप्त करने वाले, अजित और अजितरथ थे । एतदर्थ वे महारथी भी कहलाते थे । '
श्रीकृष्ण सभी प्रकार के गुण-सम्पन्न और श्रेष्ठ चरित्रवान थे । उनके जीवन के विविध प्रसंगों से सहज ही ज्ञात होता है कि वे प्रकृति से दयालु, शरणागत वत्सल, प्रगल्भ, धीर, विनयी, मातृ-भक्त, महान वीर, धर्मात्मा, कर्तव्य परायण, बुद्धिमान्, नीतिमान तथा तेजस्वी थे ।
आगंमेतर साहित्य में भी श्रीकृष्ण का वही व्यक्तित्व अक्षुण्ण रहा है ।
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आगमेतर साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रन्थ संघदासगणी विरचित वसुदेव हिण्डी है । वसुदेव श्रीकृष्ण के पिता थे । उन्हीं का भ्रमण वृत्तान्त प्रस्तुत · ग्रन्थ में है । देवकी लम्बक में श्रीकृष्ण के जन्म आदि का वर्णन है। पीठिका में प्रद्युम्न, शाम्बकुमार की कथा, बलराम और श्रीकृष्ण की अग्रमहिषियों का वर्णन है । इस ग्रन्थ की शैली का आधार गुणाढ्य कृत बृहत्कथा को बतलाया गया है । ३
१ - प्रश्नव्याकरण : अ० ४, पृ० १२१७, सुतागमे भाग १ |
२- मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला - भावनगर की ओर से सन् १९३०-३१ में प्रकाशित ।
३ - कथा सरित्सागर की भूमिका : पृ० १३; डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास
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