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कृष्ण ऋग्वेद काल में अपने अद्वितीय पराक्रम तथा वीरता के लिए प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका था ।
: ख : उपनिषदों में
कृष्ण :
उपनिषद - साहित्य में पर्याप्त प्राचीन मानी जानेवाली रचना छान्दोग्य उपनिषद्' में देवकीपुत्र कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु घोर आंगिरस का वर्णन मिलता है । इस उपनिषद् के अध्याय ३ खण्ड १७ में आत्मयज्ञोपासना का वर्णन है । इस यज्ञ की दक्षिणा के रूप में तप, दान, आर्जव - ( सरलता), अहिंसा और सत्य वचन का उल्लेख है । यह यज्ञ - दर्शन घोर आंगिरस ऋषि ने देवकीपुत्र कृष्ण को सुनाया था इस उपदेश को सुनकर कृष्ण की अन्य विद्याओं के विषय में कोई तृष्णा नहीं रही । घोर आंगिरस ने कृष्ण को यह भी उपदेश दिया था कि जब मानव का अन्त समय निकट आये तब उसे तीन मन्त्रों का जप करना चाहिए
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१ - त्वं अक्षतमसि - तू अविनश्वर है ।
२ - त्वं अच्युतमसि - तू एकरस में रहने वाला है ।
३- त्वं प्राणसंशितमसि - तू प्राणियों का जीवनदाता है । २
इस, प्रकार हम कह सकते हैं कि देवकीपुत्र श्रीकृष्ण का सर्व प्रथम उल्लेख हमें छान्दोग्य उपनिषद् में मिलता हैं ।
: ग : महाभारत में कृष्ण :
'महाभारत' में कृष्ण दो रूपों में निरूपित हुए मिलते हैं । एक तो महापुरुष के रूप में एवम् दूसरे देवता के रूप में । 'महाभारत' का रचनाकाल ३५० ई. पूर्व माना गया है । ३
'महाभारत' का महद् अंश प्रक्षिप्त माना जाता है । 'हरिवंशपुराण' 'महाभारत' का लिखा अंश अर्थात् प्रक्षिप्त अंश है । इसमें श्रीकृष्ण की
१ - अतः यत् तपोदानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमितिता अस्य दाक्षीणा ।
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छान्दोघ्य उपनिषद् ३।१७२८
२ - तद्वैतद् घोरं आंगिरस; कृष्णाय देवकी पुत्रायोक्त्वोवाचाऽपिपास एव स बभूव, सोऽन्तवेलायामेतत्त्रयं प्रतिपद्ये ताक्षतमस्यच्युतमसि प्राणस - शितमसीति
३- वैष्णव धर्म नो संक्षिप्त इतिहास - के. शास्त्री, पृ. ३९
छान्योग्योपनिषद : पृ. ३, खण्ड १८
5 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास