SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शाश्वत धर्मानुसारी ही अधिकतर रहता है । सभी कृतियों में कृष्ण के परम्परागत वीर श्रेष्ठ पुरुष का व्यक्तित्व ही चित्रित किया गया है । जैन विचारक मुनि चौथमलजी अपने काव्य ग्रन्थ “भगवान नेमनाथ और पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण" में इस तथ्य को निम्न शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं " जरासंध और श्रीकृष्ण में भारी युद्ध मचा । शूरवीर भी दहल गए हैं, विद्याधर कंपाया | * * * फिर तो जरासंध ने झुंझलाकर चक्र रत्न चलाया । - यादव सुभट देख उस ताई, तुरत मुख कुम्हलाया ।। * * * श्रीकृष्ण ने उस चक्रं को, ग्रहण किया कर मांही । सबके जी में जी आया, फिर सभी रहे हुलसाई ।। देवगण कहें भरत क्षेत्र में, प्रगटे वासुदेव । गंधोदक और पुष्प वर्षाकर, कीनी देव ने सेव ॥ १ - एक श्रेष्ठ राजा के राज्य में सब प्रकार से सुख और समृद्धि का प्रजाजन अनुभव करते है । अपने “पाण्डव - यशोरसायन " महाकाव्य में मरुधर केशरी मुनि श्री मिश्रीमल्लजी ने इन भावों को प्रकट करते हुए एक सुन्दर सवैया लिखा है, जो इस प्रकार है “सब देश किसे सुख संपति है अरु नेह बढ़े नित को सब में, वित, वाहक, साजन धर्म धुरी कुल जाति दिपावत है सब में, नहि झूठ लवार जु लाघत जोवत में व्यसनी शुभ भावन में, मधुसूदन राज में सर्व सुखी इत- कित रु भीत लखी तब में ||२ हिन्दी जैन कृष्ण - स्वरूप संबंधित अधिकतर कृतियों में कृष्ण के जीवन की घटनाओं का वर्णन लगभग समान रूप से हुआ है । अधिकांश कृतियों के रचनाकारों ने अपनी कृति का आधार आचार्य जिनसेन कृत हरिवंश पुराण को ही बनाया है । आचार्य जिनसेन से पहले जैन साहित्य में श्रीकृष्णकी महत्ता दो स्वरूपों में ही प्रस्तुत की हुई मिलती है। एक शलाकापुरुष के रूप में तथा दूसरे आध्यात्मिक पुरुष के रूप में । आचार्च जिनसेन ने सर्वप्रथम शायद वैष्णवों के पौराणिक साहित्य से प्रभावित होकर - १- चौथमल : भगवान नेमनाथ और पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण, पद सं. २४३, २४५, २- मिश्रीलाल : पाण्डव यशोरसायन - पृ. २८५ । (२४८ व २४९) हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास • 159
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy