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कृष्ण सम्बन्धी उपन्यास साहित्य में बंकिमचन्द्र उपाध्याय का "कृष्ण चरित्र" एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है । मूल कृति बंगला भाषा में है जिसका हिन्दी अनुवाद डॉ. ओमप्रकाश ने १९८५ में किया है । यह एक विस्तृत, व्यवस्थित एवं विचारपूर्ण कृति है । अध्ययन, मनन के फलस्वरूप बंकिमचन्द्र ने श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के अन्य पक्षों का अनुसंधान किया और उनके पूर्ण व्यक्तित्व की स्थापना की पुराणों का अध्ययन करने पर वह इस नतीजे पर पहुँचे कि कृष्ण संबंधी जो पाप - कथा जनमानस में प्रचलित हो गई है, वह समस्त निर्मूल है और मनगढन्त कथाओं को बाहर निकाल देने पर कृष्ण चरित्र में जो कुछ बचता है वह अति विशुद्ध, परम पवित्र एवं अतिशय महान है । लगता है ऐसा सर्वगुण सम्पन्न, समस्त - पापसंस्पर्शशून्य आदर्श चरित्र अन्यत्र कहीं भी नहीं । न किसी देश के इतिहास में है, और न किसी देश के काव्य में है । उनके अनुसार वह महान बलशाली, अतिशय सुन्दर, तथा अस्त्रविद्या में पूर्ण निपुण थे । उनका ज्ञान व बुद्धि सर्वव्यापी तथा सर्वदर्शिनी थी । उन्होंने मानव-शक्ति द्वारा निज कर्म का निर्वाह किया, परन्तु उनका चरित्र अतिमानवीय है । वे एक आदर्श पुरुष थे I आधुनिक हिन्दी जैन कृष्ण साहित्यः
आधुनिक काल में भी हिन्दी जैन कृष्ण साहित्य की रचना की गई है । मरुधरीय कविवर्य चौथमलजी ने भी कृष्णलीला का निर्माण किया है । नेमिचन्द्रजी ने नेमिनाथ और राजुल की रचना की । आचार्य खूबचन्दजी ने प्रद्युम्न और शाम्बकुमार पर लिखा । जैन दिवाकर चौथमलजी म. ने "भगवान नेमिनाथ और पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण" तथा मरुधर केशरी मिश्रीमलजी का "महाभारत", काशीनाथजी का "नेमिनाथ चरित्र तथा देवेन्द्र मुनि का "भगवान अरिष्टनेमि" और कर्मयोगी श्रीकृष्ण आदि सुन्दर रचनाएँ है ।
रचनाओं के अलावा भी श्रीकृष्ण से संबंधित कुछ शोध - पत्र भी हिन्दी भाषा में प्रकाशित हुए हैं जिनमें प्रमुख श्री सुखालालजी का "चार तीर्थंकर श्री अगरचन्दजी नाहटा ने "प्राचीन जैन ग्रंथों में श्रीकृष्ण" श्रीचन्दजी रामपुरीया ने "अर्हन्त अरिष्टनेमि और वासुदेव श्रीकृष्ण" महावीर कोटीया ने जिनवाणी पत्रिका व मुनि हजारीमलजी स्मृति - ग्रन्थ में "जैन साहित्य में श्रीकृष्ण लेख लिखकर प्रकाश डाला है । प्रोफेसर हीरालाल रसिकदास कापडिया ने "वासुदेव श्रीकृष्ण और जैन साहित्य" में अच्छा संकलन किया है ।
इन सभी कृतियों में श्रीकृष्ण से संबंधित एक बात जो सामान्य तौर पर दृष्टिगोचर होती है वह यह है कि जैन साहित्य समयानुसारी नहीं, वरन्
158 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास