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राष्ट्रीयता का समावेश तथा नवचेतना के प्रकाश में उनके चरित्र का परिष्कार करके उन्हें उत्तम मानव के रूप में प्रतिष्ठित किया है । गुण तथा परिमाण दोनों में यह ग्रंथ श्रेष्ठ है । तथा कृष्ण का सम्यक् चरित्र सम्मुख लाता है ।
"कृष्णायन" में गोपीजन - वल्लभ, भक्त-वल्लभ और असुर संहारक कृष्ण आज के युग की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं का समाधान करते हुए एक धर्म - संस्थापक, समाज-सुधारक, राष्ट्र-नायक के रूप में हमारे सामने आते हैं । इस ग्रन्थ के रचयिता ने कृष्ण के परम्परागत रूपों को ग्रहण करके भी देशकाल की आवश्यकता के अनुसार उसमें संशोधन, परिमार्जन, परिष्करण तथा विकास की अवतारणा की है ।
“कृष्णायन" के कृष्ण देवकी के पुत्र हैं तथा विष्णु के अवतार हैं । वे कारावास में वसुदेव-देवकी को तथा सरोवर में अक्रूर को विष्णु के रूप में दर्शन देते हैं । वे मायापति हैं । इसी की सहायता से इन्द्र के प्रकोप को प्रभावहीन बनाते हैं तथा अक्रूर की बुद्धि को भ्रम में डालते हैं । उनके असुर - विनाशक कार्य अलौकिक शक्ति-सम्पन्न होने के परिचायक हैं । कवि ने उनके कृत्यों को लीला तथा उन्हें लीलापति कहा है ।
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बाल-रूप का वर्णन परम्परा के अनुसार हुआ है । वे थोड़ा खाते, किन्तु बहुत लिपटाते हैं । स्वयं खाकर नन्द को खिलाते तथा मिर्च लगने पर रोते हैं । चन्द्र प्रस्ताव, दाऊ का खिजाना आदि सभी कथायें भक्त कवियों जैसी हैं ।
कंधे पर "कमरी" और लकुटी रखे तथा वेणु बजाते हुए कृष्ण को गोचारण के लिए प्रस्थान करते दिखाया है ।
गोपी - वल्लभ तथा राधा - वल्लभ रूप परंपरित हैं । गोपी-वल्लभ कृष्ण में माधुर्य के स्थान पर दास्य तथा वात्सल्य भाव का समावेश करके कृष्ण चरित्र को देश - काल की माँग के अनुरूप उज्ज्वल बना दिया है ।
राधा-वल्लभ कृष्ण का चित्रण आध्यात्मिक स्तर पर हुआ है । उसके पारस्परिक अनुराग को विष्णु-लक्ष्मी के प्रेम का रूप प्रदान किया है । ३
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१ - डॉ. गोविन्दराम शर्मा हिन्दी के आधुनिक महाकाव्य : कृष्णायन, पृ. ३१८ । २- विहंसत पितु कछु कौर खवाये ।।
लागि मिरिच लोचन भरि आये ।।" - कृष्णायन : अवतरण कांड, पृ. ४० ३- जनु कछु क्षीर सिंधु सुधि आई । -
-कृष्णायन : अवतरण काण्ड, पृ. ५४ /
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास
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