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चैतन्य सम्प्रदाय में कृष्ण ही अंतिम तत्त्व हैं । कृष्ण की तीन शक्तियाँ है - चित्, माया और जीव । चित् शक्ति से भगवान अपने गुणों की अभिव्यक्ति करते हैं । राधा उनकी आह्लादिनी शक्ति आनन्द - शक्ति है कृष्ण प्रिया ही अपने व्यक्त स्वरूप में राधिका कही जाती है । माया शक्ति से भगवान जड् जगत् को उत्पन्न करते हैं और जीव शक्ति से अनन्त आत्माओं को । जीव भगवान से भिन्न है और अणु - परमाणु वाला है । जीव और जगत् भगवान के विशेषण नहीं, उनकी शक्ति की अभिव्यक्तियाँ है । भगवान् की इच्छा मात्र से माया में गति उत्पन्न होती है । संप्रदाय में मोक्ष का अर्थ है- भगवान् की प्रीति का निरन्तर अनुभव प्रेम ही मुक्ति है । भक्ति वास्तविक मोक्ष है और भगवद - भक्ति की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है 1 (४) हरिदासी संप्रदाय में कृष्णः
स्वा. हरिदास सखि भाव के उपासक, अत्यन्त रसिक भावुक भक्त थे । उन्होंने अपने इष्टदेव का जो रूप रखा, संप्रदाय में वही मान्य हुआ । अतः संप्रदाय में परात्पर रस स्वरूप नित्य किशोर वृन्दावन - बिहारी श्रीकृष्ण ही आराध्य हैं । स्वा. हरिदास अनन्य सखी ललिता का अवतार माने जाते हैं । ललिता सखी की दृष्टि ने वृन्दावन - बिहारी और विहारणी की नित्य केलि क्रीड़ाओं की जो झाँकी देखी वह संप्रदाय की अतुल संपत्ति है । युगल सरकार की रसात्मक उपासना के अन्तर्गत ही उनके सारे स्वरूपों परब्रह्म, लीलावतारी, दुष्टदलन, भक्तत्राता आदि का अन्तर्भाव हो गया है । दयनीय किशोर मूर्ति श्रीकृष्ण की रूप- माधुरी के मधुपायी चंचरीक हरिदासजी एवं परवर्ती भक्तों ने भगवान की रसात्मक केलि और किशोर क्रीड़ा में अपने को निमज्जित कर दिया है ।
स्वामी हरिदासजी के परात्पर रस स्वरूप नित्य बिहारी श्रीकृष्ण के भी अवतारी हैं ।' उपासना का यह छाँट रस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । स्वामी हरिदासजी ने स्पष्ट कहा है कि उनकी उपासना ब्रज की उपासना नहीं है --
उनका यह उपास्य ब्रज का नहीं है, यह तो नव निकुंज सुखपुंज महल १- सरि श्री हरिदास जी को करि है ।
कर्म धर्म भक्ति मुक्ति इति भरजा दहि को टरि है । असकला अवतारन के, ब्रज के रस - सिंधुहिं को तरि है ।
रस रीति सों रीति प्रतीत यहै श्री विहारिनदासहि जो बरि है । जिनके सुख सार बिहार सही, सरि श्री हरिदास की को करि है ।
- बिहारिनदास /
146 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास