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चैतन्य मत अचिन्त्य भेदाभेद के सिद्धान्त को मानता है । भगवान श्रीकृष्ण ही परम तत्त्व हैं । उनको अनन्त शक्तियाँ हैं । शक्ति और शक्तिमान में न तो परस्पर भेद ही सिद्ध होता है और न अभेद, -इन दोनों का संबंध तर्क के द्वारा अचिन्त्य है । ब्रजस्वामी नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण ही आराधनीय भगवान हैं । इनका धाम वृन्दावन है । ब्रज की गोपिकाओं के द्वारा की गई रमणीय उपासना ही साधकों के लिए माननीय प्रमाणिक उपासना है । श्रीमद्भागवत निर्मल प्रमाण-शास्त्र है । प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है-चैतन्य मत का यही सारांश है ।'
कष्ण के प्रति प्रेम काम किसी प्रकार नहीं हो सक्ता । गोपियों का कृष्ण के प्रति भाव काम का नहीं, प्रेम का था। इसलिए वह उज्ज्वल था । गोपियाँ अपने सुख के लिए नहीं, कृष्ण के सुख के लिए उनसे प्रेम करती थीं।
कृष्णमयी कृष्ण जार मितरे बाहिरे ।
.. जोह जोहा नेत्र पड़े लोहा कृष्ण स्फुरे ॥ अतएव सर्वपूज्या परम देवता ।
सर्वपालिका सर्व जगतरे माता ।। जगत मोहन कृष्ण ताहार मोहिनी ।।
अतएव समस्तेर परा ठकुराणी। राधा पूर्ण शक्ति कृष्ण पूर्ण शक्तिमान । दुइ वस्तु भेद नाहिं शास्त्रेण प्रमाण । मृगमद तारगंध जैसे जैसे अविच्छेद । अग्निज्वाला ते जैछे वसु नाहि भेद । राधाकृष्ण एछे सदा एकइ स्वरूप । लीलारस आस्वादि ते घरे दुइ रूप ॥
-चै.च.आदिलीला ४, पृ. २४-२५ १- आराध्ये भगवान ब्रजेशतनय स्तधाम वृन्दावन ।
रम्या काचिदुपासना ब्रज वधूवर्गेण या कल्पिता ॥ शास्त्र भागवतं प्रमाण ममले, प्रेमा पुमर्थी महन् । श्री चैतन्यमहाप्रभोमंतमिदं तत्रादरो नः परः ॥
___ -विश्वनाथ चक्रवर्ती दे.द.पृ.५२७ । २- काम तात्पर्य कहै केवल संभोग निज,
कृष्ण सुख तात्पर्य प्रेम बल यही है । वेद, धर्म, लोक धर्म, देहधर्म, कर्म लज्जा,
धैर्य आत्मदेह सुख जोई प्रिय सही है । दुस्त्यज जो आर्यपथ परिजन स्वजन कों,
ताडन और भर्त्सन सोऊ सुख नहीं है। सवै त्यागि कृष्ण भजे, तत्सुख ही हेत सजै, कर प्रेम सेवा भाँति प्रिय रुचि लही है ।
सुबल श्यामकृत चैतन्य चरितामृत
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 145