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वर्ण भी इसी बात का द्योतक है कि उनमें राधा-भाव समाविष्ट है । भाव
और वर्ण उनमें दोनों ही राधा के थे । उनके अन्तर का वर्ण तो भिन्न है, कृष्ण है, बाहर का वर्ण श्रीराधा की अंग कान्ति है ।
श्री चैतन्य दैव के शब्दों में - ब्रजेन्दनन्दनमद्वय ज्ञान-तत्त्व वस्तु है । सबके आदि सर्वांशी, किशोर, शेखर, चिदानन्द, स्वरूप, सर्वाश्रय और सर्वेश्वर हैं । वे स्वयं भगवान हैं, इनका दूसरा नाम गोविन्द हैं, सर्वैश्वर्यपूर्ण है, गोलोक धाम हैं।
कृष्ण अवतार नहीं, अवतारी हैं, अंश नहीं अंशी हैं । इष्टदेव कृष्ण की देह का धर्म बाल्य और पोगन्ड है, किन्तु स्वयं अवतारी और गोविन्द मोहिनी हैं । वे समस्त कांताओं की शिरोमणि हैं । ये राधा कृष्णमयी हैं, वे सब जगह कृष्ण को ही देखती हैं । राधा सर्वपूज्य परम देवता हैं, सभी की पालन-कतृ जगत-माता हैं । कृष्ण स्वयं जगत-मोहन हैं, राधा इन्हें भी मोहित करती हैं । अतः वे सबसे श्रेष्ठ हैं । राधा पूर्ण शक्ति हैं, कृष्ण पूर्ण शक्तिमान हैं । इन दोनों में इसी प्रकार कोई भेद नहीं है, जैसे मगमद और इसकी गंध में तथा अग्नि और उसकी ज्वाला में । राधा-कृष्ण एक ही स्वरूप है केवल लीला रस के आस्वादन करने के लिए दो रूप धारण किये
१- अंतरे वरण भिन्न, बाहिउ गोगंग चिन्ह ।
श्री राधार अंग कांति राजे ॥ गो. प. त. १/३/११।। २- कृष्णे-स्वरूप विचार शुन सनातन ।
अद्वय जान तत्त्व वस्तु ब्रजेन्द्र नन्दन । सर्वापि सर्व अंशी किशोर शेखर।
चितानन्द देह सर्वाश्रय सर्वेश्वर ।। स्वयं भगवान कृष्ण गोविन्द परनाम ।
___सर्वेश्वर्यपूर्ण जार गोलोक नित्य धाम ।। -चै.च. मध्यलीला परि. २० पृ.२६१ । ३- अंश शक्त्यावंश रूपे द्विविधावतार ।
बाल्य और पोगन्ड धर्म दुइत प्रकार ।। किशोर स्वरूप स्वयं अवतारी ।
चै. च. आदि लीला परि. २, पृ.१६ । ४ गोविन्दा नन्दिनी राधा गोविन्द मोहिनी ।
गोविन्द सर्वस्व सर्व कांता शिरोमणि ।।
144 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास