________________
को प्रकट करता है । दो. होकर भी परब्रह्म पूर्ण ही रहता है । इस प्रकार उसका द्विविध अन्तर्यामी रूप पूर्ण हो पुरुषोत्तम में स्वामिनी भाव ( सधा भाव ) एवं स्वामिनी में पुरुषोत्तम भाव से स्थित रहता है । जब पुरुषोत्तम बाह्य रूप से लीला करते हैं तब उनकी शक्तियाँ भी बाह्य-स्थित रहती हैं और विविध रूप, गुण और नामों से उनसे विलास करती हैं । उनः अनन्त शक्तियाँमें श्रिया, पुष्टि, गिरा और कान्त्या आदि द्वादश शक्तियाँ मुख्य हैं। ये ही श्रीस्वामिनी, चन्द्रावली, राधा और यमना आधिदैविक रूप और नामों से प्रकट होकर पुरुषोत्तम के साथ ही स्थित रहती हैं ।
श्रीकृष्ण अवतार तथा अवतारी भी हैं । जो ब्रह्म प्राकृत गुणों से रहित निर्गण स्वरूप हैं वही इस लोक में अवतार धारण कर सगुण रूप से लीलाएँ करते हैं । इसी सिद्धान्त के अनुसार वल्लभ सम्प्रदायी भक्तों ने भगवान् कृष्ण की अनेक लीलाओं की अवतारणा की है । सम्प्रदाय में भागवत को विशेष रूप से मान्यता प्राप्त है । जितने भी वल्लभ-सम्प्रदायी कृष्ण-भक्त कवि हुए प्रायः सभी ने भागवत को आधार मानकर श्रीकृष्ण की अनेक मनोहारी, लीलाओं का उद्घाटन किया । काव्य के लिए भी उन्होंने भागवत को आधार बनाया । सूरदास का सूरसागर" नंददास का भँवरगीत तथा रास-पंचाध्यायी आदि रचनाएँ इसका प्रमाण है।
वल्लभ-सम्प्रदाय में कृष्ण के साथ राधा का भी समावेश है किन्त उन्हें सच्चिदानन्द प्रभु की आल्हादिनी शक्ति माना जाता है । अपनी आल्हादिनी शक्ति के साथ ब्रह्म का जगत में आविर्भाव एवं तिरोभाव होता है । वल्लभ सम्प्रदाय में श्रीकृष्ण के स्वरूपों की सेवा और पूजा होती है । सम्प्रदाय में इन्हें मूर्ति न कहकर भगवान का साक्षात् स्वरूप माना जाता है । इसीलिए इन्हें स्वरूप कहा जाता है ।
शुद्धाद्वैत सिद्धान्त के अनुसार श्री राधा परब्रह्म की आत्मशक्ति होने से सर्वथा अभिन्न मानी गई है । श्रीनाथजी के साथ राधा-भाव अभिन्न है । इसी कारण राधा का प्रथम विग्रह दष्टिगोचर नहीं होता । शुद्धाद्वैत सिद्धान्त में श्रीकृष्ण की प्रधानता है क्योंकि यहाँ शक्ति शक्तिवान के अधीन ही मानी गई है । वस्तुतः राधा और कृष्ण अभिन्न और एकरूप है, यही शुद्धाद्वैत सिद्धान्त का वास्तविक स्वरूप है । १- सएकाकी नारमत् । सआत्मानं द्वधा पातयत
तथा – भजनानंदसिद्धयर्थ द्विरूपत्वमयीष्यते । - भा. ए. एक नि. कारिका २- द्वारकादास परीख सूर-निर्णय पृ. १९० ।
142 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास