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________________ पुरुषोत्तम कहलाते हैं तथा जब प्रकट होते हैं तब वे ही श्रीकृष्ण कहलाते है । वेदान्त शास्त्र में जिसे ब्रह्म कहा गया है, स्मृति अथवा पुराणों में जो परमात्मा शब्द से संहिता है, भागवत शास्त्र में जिसे भगवान शब्द से व्यक्त करते हैं, वे पुष्टि-मार्ग में स्म-स्वरूप श्रीकृष्ण हैं। श्री वल्लभाचार्य का सिद्धान्त शुद्धाद्वैत था । आचार्य शंकर के अद्वैत से भिन्नता दिखाने के लिए ही अद्वैत के साथ शुद्ध विशेषण दिया गया है । अद्वैत मत में मायाशंबलित ब्रह्म जगत का कारण माना जाता है, परन्तु इस मत में माया से अलिप्त, माया सम्बन्ध से विरहित अतएव नितान्त शुद्ध ब्रह्म जगत का कारण माना जाता है । - भक्ति के जिस मार्ग का निर्देशन श्री वल्लभाचार्य ने किया उसे पुष्टि मार्ग कहा गया । श्रीकृष्ण पूर्णानन्द स्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं । अद्भुत अलौकिक कर्म करने वाले उस कृष्ण को में नमस्कार करता हूँ, जिससे जगत का आविर्भाव हुआ और जो रूप और नाम के भेद से इस जगत में रमण कर रहे है । आनन्द-स्वरूप श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं । वल्लभाचार्य ने उन्हीं को अपने मार्ग का इष्ट और उन्हीं की भक्ति को परमानन्द प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन माना है । सम्प्रदाय में श्रीकृष्ण के अवतार रूप में दो रूप मान्य है । एक लोक-वेद कथित पुरुषोत्तम, दूसरा लोकवेदातीत पुरुषोत्तम, मधुरा, द्वारका, तथा कुरुक्षेत्र में लीला करने वाले, ब्रज में दुष्टों का संहार करने वाले, तथा धर्म की स्थापना करने वाले वेद-रक्षक कृष्ण हैं तथा बाल-रूप से यशोदा और नन्द को मोहने वाले वृन्दावन में ग्वाल-बालों के साथ गायें चराने वाले तथा वृन्दाविपिन में गोपियों के साथ रास करने वाले कृष्ण का रूप रसात्मक है । देवकीनन्दन वासुदेव धर्मरक्षक-रूप हैं तथा यशोदा- नन्दन और नन्दनन्दन रसरूप हैं। जब यह परब्रह्म अपने अपरिमित आनंद को बाह्य रूप से अनुभव करना चाहता है तब वह अपनी आत्मा के दो विभाग करके उसके स्त्री-भाव और पुं-भाव १- श्रीकंठ मणि पुष्टि मा. सिद्धान्त की आध्या. पृष्ठभूमि । २- माया सम्बन्ध रहितं शुद्धमित्युच्यते बुधैः ।। कार्यकारण रूपंहि शुद्धं ब्रह्म न माविकम् ॥ - शुद्धाद्वेत मार्तण्ड-२८ ३- नमो भगवते तस्मै कृतरायाभुत कर्मणे, रूप नाम विभेदेन जगतः क्रीडति यो यज्ञः ॥ - स.दी. निए शास्त्रार्थ, प्रकरणं श्लोक । पृ. । ४- डो. दीन दयाल गुप्त : अष्टछाप और वल्लभसम्प्रदाय, पृ. ४०४ । हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 141
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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