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के मार्मिक वर्णन मिलते हैं । इनमें भागवतपुराण निशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें कृष्ण के रूपों के सबसे अधिक वर्णन हुए हैं, और यही वैष्णव भक्ति का मूलाधार रही है । डॉ. विश्वनाथ शुक्ल के शब्दों में श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्ण रूपों का सारांश यह है
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- श्रीकृष्ण प्रकृति से परे, प्रकृति नियामक साक्षात् ईश्वर हैं । वे अपनी विच्छित्ति से माया को निरास कर अपने कैवल्यरूप में स्थित हैं । कृष्ण, वासुदेव, देवकी पुत्र, नन्दगोपकुमार, गोविन्द आदि नामों से इसी परब्रह्म परमेश्वर को प्रणाम किया जाता है । वे वस्तुतः अजन्मा और अकर्मा हैं, किन्तु ऋषि, मनुष्य, तिर्थंक, जलचरादि योनियों में जन्म लेना और तत् योनियों के अनुरूप आचरण करना इनकी लीला मात्र है । वे कालरूप, अनादि-निधन और सर्वव्यापक हैं । वे आत्माराम हैं, किन्तु भक्तों की कीर्ति - कौमुदी विकीर्ण करने के लिए उस अजन्मा ने यदुकुल में जन्म लिया । भक्तियोग की स्थापना करना भी उसका लक्ष्य था । भक्ति - पराधीन होने के कारण भगवान कृष्ण को पुत्र, मित्र, पति, मंत्री, दूत और सारथी तक बनना पड़ा । वस्तुतः तो वे समदर्शी, अद्वितीय परमात्मा हैं । वे आदिपुरुष नारायण हैं जो लोगों को विमोहित करते हुए गूढ रूप से वृष्णि वंश में विचरण कर रहे हैं । परम प्रेमविह्वला भक्त गोपियों के साथ उस योगेश्वर आतमाराम को साधारण प्राकृत पुरुष के समान भी रमण करना पड़ा ।"
जैन समाज में जो भी पुराण - साहित्य विद्यमान है, वे अपने ढंग का निराला है । जहाँ अन्य पुराणकार इतिवृत्त की यथार्थता सुरक्षित नहीं रख सके हैं, वहाँ जैन पुराणकारों ने इतिवृत्त की यथार्थता को अधिक सुरक्षित रक्खा है ।
यति वृषभाचार्य ने “तिलोयपण्णति" के चतुर्थ' अधिकार में तीर्थंकरों के माता-पिता के नाम, जन्म नगरी, पंचकल्याणतिथि, अन्तराल, आदि कितनी ही आवश्यक वस्तुओं का संकलन किया है । जान पडता है कि हमारे वर्तमान पुराणकारों ने उस आधार को दृष्टिगत रख कर पुराणों की रचनाएँ की हैं । पुराणों में अधिकतर त्रेसठ शलाकापुरुष का चरित्रचित्रण है । प्रसंगवश अन्य पुरुषों का भी चरित्र-चित्रण हुआ है I
जैन पुराणों की खास विशेषता यह है कि इनमें यद्यपि काव्य शैली का आश्रय लिया गया है तथापि इतिवृत्त की प्रामाणिकता की ओर पर्याप्त दृष्टि रखी गई है ।
जैन साहित्य में हरिवंश पुराण में शलाकापुरुष वासुदेव कृष्ण की
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास
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