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________________ महाभारत के अन्तर्गत कृष्ण के व्यक्तित्त्व के विविधरूप देखे जा सकते हैं । "महाभारत" के आरम्भ में ही कृष्ण को "युधिष्ठिर रूपी धर्म - वृक्ष का मूल" कहकर कौरव और पाण्डवों के वृत्तान्त में उनके स्वतंत्र व्यक्तित्त्व को प्रस्तुत किया गया है । उसके "वनपर्व" में मार्कण्डेय ऋषि प्रलय - काल में जगत् को आत्मसात् करके वट वृक्ष के पत्र में शयन करने वाले विष्णु को "कृष्ण रूप" बतलाते हैं । " शान्तिपर्व" का नारायणीय - वृत्तान्त “कृष्ण के परब्रह्म स्वरूप पर सबसे अधिक प्रकाश डालता है । इसमें नर-नारायण, कृष्ण और हरि को सनातन नारायण के चार अवतार कहा गया है । शान्ति - पर्व के “भीष्म स्तवराज" के अन्तर्गत कृष्ण के विष्णु स्वरूप की स्तुति की गई है। सभी पर्व में राजसूय यज्ञ के अवसर पर कृष्ण की अग्रपूजा में शिशुपाल आदि राजाओं के विरोध करने पर भी भीष्म कृष्ण के विष्णु स्वरूप पर जोर देते हैं । महाभारत के कुछ स्थलों पर कृष्ण के देव-स्वरूप को छोड़कर उनके मानव-रूप को ही प्रस्तुत किया गया है । पाण्डवों के सलाहकार के रूप में कृष्ण के ईश्वरत्व पर विश्वास न करने वाले ब्राहमणं उनकी सीमित शक्ति की और संकेत करते हैं । अश्वमेध - पर्व के अनुगीता भाग में उत्तक ऋषि का कृष्ण को शाप देने को उद्यत होना भी उनके मानव - चरित्र की ओर संकेत करता है । सभापर्व, वनपर्व तथा शांतिपर्व में कृष्ण के गोपाल रूप का वर्णन भी पाया जाता है । 1 पतंजलि का "महाभाष्य" कृष्ण के व्यक्तित्त्व पर पर्याप्त प्रकाश डालता है । इसमें वासुदेव को कंस का निहन्ता कहा गया है । कंस की घटना प्रस्तुत करने के कारण "वासुदेव" कृष्ण का ही नाम ज्ञात होता है । पाणिनि की " अष्टाध्यायी" में भी वासुदेव का उल्लेख है । पाणिनि का समय विद्वानों ने लगभग ढाई हजार वर्ष प्राचीन माना है । इस प्रमाण से कृष्ण - पूजा पाणिनि से बहुत अधिक पुरानी सिद्ध होती है । वासुदेव का आशय कृष्ण से ही है, यह "गीता" के दसवें अध्याय के इस श्लोक से भी सिद्ध होता है “वृष्णीनां वासुदेवो स्मि पाण्डवानां धनंजय ।" जैन महाभारत का केन्द्रबिन्दु श्रीकृष्ण - वासुदेव दोनों हैं । बाकी के सभी पात्र उनके इई-गिर्द घूमते हैं । जैन साहित्य में वसुदेव के पुत्र को ही वासुदेव नहीं कहा गया है। नौ वासुदेवों में केवल एक श्रीकृष्ण ही वसुदेव के पुत्र हैं, अन्य नहीं । वासुदेव यह एक उपाधि विशेष है । जो तीन खण्ड के अधिपति होते हैं, जिनका तीन खण्ड पर एक - छत्र साम्राज्य होता है वे 136 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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