SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बताते हुए भण्डारकर, लोकमान्य तिलक, डा. राय चौधरी आदि विद्वानों ने पाणिनि व्याकरण के सूत्र का प्रमाण प्रस्तुत किया है और इसके आधार पर उन्होंने बताया है कि, ईसा के पूर्व सात शताब्दी से वासुदेव की उपासना प्रचलित हो गई थी । किन्तु वासुदेव की भक्ति का विकसित रूप हमें महाभारत में मिलता है । पं. रामचन्द्र शुक्ल ने भी सूरदास में स्पष्ट लिखा है कि - वासुदेव भक्ति का तात्त्विक निरूपण महाभारत के काल में ही प्रचलित हुआ। विष्णु और वासुदेव का ऐक्य भी महाभारतकार ने स्वीकार किया है । वे विष्णु को ही वासुदेव का रूप मानते हैं। वैदिक परम्परा में श्रीकृष्ण का अपर नाम ही वासुदेव है । डॉ. भण्डारकर का अनुमान है कि -- वासुदेव भक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक का नाम था । महाभारत के शान्ति पर्व में यह कहा गया है कि सात्वत या भागवत धर्म का सबसे पहले कृष्ण वासुदेव ने अर्जुन को उपदेश दिया । यहाँ पर वासुदेव और कृष्ण दो पृथक व्यक्ति न होकर एक ही हैं, किन्तु डॉक्टर भण्डारकर ने इन दोनों को पृथक-पृथक स्वीकार किया है । उनकी यह धारणा है कि प्रारम्भ में ये दो पृथक् अस्तित्व वाले देवता थे जो बाद में एक हो गए । इस मत को परवर्ती विद्वानों ने स्वीकार नहीं किया है । महाभारत में जिस श्रीकृष्ण का वर्णन है, वह एक ही है, उसके नाम चाहे अनेक हों। गीता रहस्य म्में तिलक ने स्पष्ट लिखा है - हमारा मत यह है कि कृष्ण चार-पाँच नहीं हुए हैं, वे केवल एक ही ऐतिहासिक पुरुष थे । १० १- कलेक्टेड वर्क ऑफ सर आर. जी. भण्डारकर, कोल्युम ४, पृ. ४१५ । २- गीता रहस्य, पृ. ५४६-४७, बालगंगाधर तिलक । ३- एच. राय चौधरी,. दि अर्ली हिस्ट्री ऑफ दि वैष्णव सेक्ट, पृ.१२४ । ४- वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन - पाणिनि अष्टाध्यायी-४/३/९८ - सूत्र के वसुदेवक शब्द से वसुदेव की भक्ति करने वाला सिद्ध होता है। ५- राधावल्लभ सम्प्रदाय : सिद्धांत और साहित्य, पृ.१ । ६- सूरदास (भक्ति का विकास) - पृ.२६ । । ७- महाभारत, शान्ति पर्व, अ. ३४७, श्लोक ९४ । ८- एच. राय चौधरी : अर्ली हिस्ट्री ओफ दि वैष्णव सेक्ट, पृ. ४४ । ९- महाभारत, शान्ति पर्व, अ. ३४७-४८ ।। १०- गीता रहस्य अथवा कर्मयोग : पृ.५४८ (पाद टिप्पणी सहित) -- श्री बालगंगाधर तिलक । 134 . हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy