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मुणों को अंमीकार करने के द्वारा आत्मशुद्धि च आत्मा का परिष्कार ही मुख्य बात थी।
जैन धर्म के दर्शन की समस्त परंपरा भी इन्हीं विचारों पर आधारित हैं । आत्मा की श्रेष्ठता बहाँ मान्य है। अहिंसा को यह परंपरा परम धर्म मानती हैं । तम, त्याग और सत्य का आचरण इस धर्म के लक्षण हैं । ___ इस प्रकार घोर आंगिरस द्वास देवकी पुत्र कृष्ण को दिया गया यह उपदेश जहाँ जैन-पसम्पस या श्रमणिक विचारधारा के निकट है, वहीं वैदिक परंपरा तथा विचास्थास से विपरीत है।
डॉ. सधाकृष्णन ने भी लिखा है कि - "कृष्ण वैदिक धर्म के भाजक का विरोधी थे और उन सिद्धान्तों का प्रचार करते थे जो उन्होंने घोर आंगिरस से सीखे थे । साथ ही उनके विचार से, घोर आंगिरस की शिक्षाओं और गीता में कृष्ण की शिक्षाओं में परस्पर बहुत अधिक समानता है। लेखक के अनुसार गीता हमारे सम्मुख जो आदर्श उपस्थित करती है, वह
अहिंसा का है । यह बात सातवें अध्यायः में मन, वचन और कर्म की पूर्ण दशा है और बारहवें अध्याय में भक्त के मन की दशा के वर्णन से स्पष्ट हो जाती है । .
- इस प्रकार कृष्ण का अहिंसा धर्म के प्रति लगाव हमें सोचने को बाध्य करता है । घोर आंगिरस की शिक्षाओं का जैनपरंपरा से साम्य विचारणीय लगता है । पुन : जैन परंपरागत साहित्य में तीर्थंकर अर्रिष्टनेमि तथा कृष्ण का पारिवारिक सम्बन्ध इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण लगता है। ऐसा लगता है कि कृष्ण अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अपने ही कुल के राजपुत्र अरिष्टनेमि के अहिंसा तथा आत्मा की श्रेष्ठता व अमरता के विचारों से प्रभावित हुए थे। .. महाभारत में वासुदेव को विष्णु का अवतार माना है । महाभारत में वासुदेव का उल्लेख आया है, किन्तु वासुदेव के स्वरूप के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है । वासुदेव वैदिक परम्परा में कब से उपास्य रहे हैं, इसको १- भगवद्गीता : परिचयात्मक निबन्ध, पृ० ३२ -डॉ. राधाकृष्णन । २- वही, पृ० ३२ । ३- वही, पृ० ७५ । ४- : क : मसभारत : भीष्म पर्व, अ. ६५ । : ख : सर्वेषामाश्रयो विष्णुरैश्वर्य - विधिमास्थितः । सर्वेभूतकृतावासो वासुदेवेति चोच्यते ॥
- महाभारत : शान्तिपर्व, अ. ३४७, श्लोक ९४ ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास • 133