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कहा जाता है) के साथ विजय-बलदेव और अश्वग्रीव (हयग्रीव) प्रतिवासुदेव हैं । तदनन्तर क्रमशः द्विषष्ठ के साथ अचल और तारक, स्वयम्भू के साथ धर्म और मधुसूदन, पुरुषसिंह के साथ सुदर्शन और मधुक्रीड़, पुण्डरीक के साथ नान्देषेण और निशुम्भ, दत्त के साथ नन्दिमित्र और वलि, लक्ष्मण के साथ राम और रावण और कृष्ण के साथ बलदेव और जरासंध संयोजित हैं।
उक्त सूची में बलरामों की योजना जैन साहित्य की अपनी विशेषता है । इस योजना के आधार पर अंतिम बलदेव प्रतीत होते हैं । क्योंकि इस सूची में वैसे बलदेव की संख्या सर्वाधिक है जो पूर्ण रूप से जैन साहित्य की कल्पना है । वैष्णव पुराण में राम और बलराम को छोड़कर अन्य किसी भी बलराम का उल्लेख नहीं मिलता है । आठवीं जोडी में लक्ष्मण के स्थान पर राम बलराम से नाम-साम्य के कारण आठवें बलदेव हो गये और लक्ष्मण, कृष्ण-विष्णु के स्थान में बड़े भाई बलराम की तुलना में ही कृष्ण वर्ण राम तथा रावण को मारने वाले माने गये । इस प्रकार जैन महाकवि पुष्पदंत वाल्मीकि और व्यास की भूलों को सुधारते प्रतीत होते है ।
हरिवंश पुराण ८८, ९ में कृष्ण गोपाल को पृथ्वी का रक्षक कहा गया है । ये शेषशायी तथा पंचजन्य और धनुष धारण करने वाले हैं । जैन पुराणकार के अनुसार भी इनका अवतार प्रयोजन कंस-वध ही रहा है । फिर भी संभवतः बलदेव-कृष्ण को जैन परम्परा में समेटने के लिए बताया गया है कि पूर्वकालीन जन्मों में कृष्ण और बलदेव जैन मुनि थे । दूसरे जन्म में वे मुनि द्वय बलदेव-कृष्ण के रूप में अवतरित होते हैं । पुनः दूसरे स्थल पर बताया गया है कि कृष्ण जो विष्णु-वामन के अवतार हैं, कसका वध करने के लिए वामनावतार के देव पुनः अवतरित होते हैं ।
इन प्रसंगो से स्वतः स्पष्ट है कि कृष्ण की अवतार कथाओं को
१- महापुराण ७४, ११, ११ । ।
लक्खव दामोदरणमियकमु, अट्ठम हलहरु रणरस विसमु । २- महापुराण ६९, ३, / ०- ११ । कि मलसिं सहासहि धउलइइ लइ लोउ असच्चु सव्वु कहइ ।
वम्मीय वासवयणिहि पहिउ अण्णाणु कुम्भग्गकवि पडिउ । ३- जैन परिवंश पुराणं ८५, १७ । ४- जैन परिवंश पुराण, ८९, ८-१८ । ५- वही, ८५-८।
130 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास