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जैन-साहित्य में अवतारवाद प्रमुख अभिव्यक्ति का विषय नहीं है, फिर भी उसमें कतिपय अवतारवादी तत्वों के दर्शन होते हैं । इस दृष्टि से इस साहित्य में व्याप्त ६३ महापुरुषों की परम्परा उल्लेखनीय है । क्योंकि एक ओर तो इनमें गृहीत २४ तीर्थंकरों के आर्विभाव पर अवतारवादी रंग चढ़ाया गया है और नौ बलदेव, नौ वासदेव और नौ प्रतिवासदेव के रूप में वैष्णव परम्परा में प्रचलित अवतारवादी रूपों का जैनीकरण किया गया है।
यों तो जैन अपभ्रंश हिन्दी साहित्य में अभी तक जितने महाकाव्य उपलब्ध हो सके हैं, सभी में धार्मिक भावनाओं का प्राधान्य रहा है । इनमें "पउम चरिउ के उपरान्त स्वम्भू तथा जैन कवियों द्वारा लिखे गए "रिट्ठणेमि चरिउ, हरिवंशपुराण, हेमचन्द्र का, “त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, पुष्पदंत के “महापुराण" और "उत्तरपुराण" - इन प्रमुख ग्रंथों में वैष्णव अवतारों के जैनीकृत रूप तथा जैन अवतारवाद के कतिपय उपादान मिलते हैं।
जैन पराणों में वर्णित तीर्थंकरों का अवतारवाद वैष्णव, अवतारवाद से कुछ अंश में भिन्न प्रतीत होता है । वैष्णव अवतारों में परमपुरुष परमात्मा विष्णु अवतरित होते हैं । उनको यह पद किसी साधना के बल पर नहीं प्राप्त हुआ है अपितु वे स्वयं अद्वितीय ब्रह्म, स्रष्टा पालक और संहारक हैं । इसके विपरीत जैन तीर्थंकर प्रारम्भ में ही अद्वितीय ब्रह्म या परमात्मा न होकर साधना के द्वारा उत्क्रमित होकर परमात्मा या लोकेश होते हैं । सन्तों एवं साम्प्रदायिक आचार्यों सदृश जैन मत में भावना की अपेक्षा साधना का अत्यधिक मूल्य समझा जाता है । बारह चक्रवर्ती, बलदेव-वासुदेव और प्रतिवासुदेवः
तीर्थंकरों के पश्चात् तिरसठ महापुरुषों में बारह चक्रवर्ती परिगणित होते हैं । जैन पुराणों में ये पृथ्वी मण्डल को सिद्ध करने वाले बतलाये गये हैं।
जैन साहित्य में क्रमशः नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव, को त्रिषष्टि महापुरुषों में ग्रहण किया गया है । अनेक विषमताओं के होते हुए भी इन तीनों का सम्बन्ध विष्णु के पौराणिक अवतारों और उनके शत्रुओं से विदित होता है । जैन पुराणों में दी हुई इनकी कथाओं से यत् किंचित् वैषम्य होते हुए भी तीर्थंकरों के सदृश इनकी कथाओं में भी पुनरावृत्ति हुई है । सामान्यतः सभी कथाओं में एक बलदेव, एक वासुदेव और एक प्रतिवासुदेव ग्रहीत हुए हैं । अतः प्रथम त्रिषष्ठ वासुदेव (जिन्हें नारायण और विष्णु भी
१- तिलोयपण्णति, पृ० २०४, ४, ५१५-५१६ ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 129