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वैष्णव पुराणों में ही ग्रहण किया गया है । साम्प्रदायिक रंग देकर केवल बलराम-कृष्ण को जैन मुनि ही प्रमाणित करने की चेष्टा नी हुई है, अपितु अन्य अवतार प्रसों को भी विकृत रूम में सम्बद्ध किया गया है ।
इस प्रकार जैन साहित्य में जैन तीर्थकों के दिव्य जन्म में अवतारवादी तत्त्वों के दर्शन होते हैं । असंख्य अवतारों के सदशा तीनों कालों में होने वाले जिनों की संख्या भी अनन्त विदित होती है । वे नित्य रूप में स्थित विमानों से संभवतः जैन धर्म के निमित्त अवतरित होते हैं । इनमें ऋषभ तो विष्णु एवं अनेक अवतारों से भी अभिहित किये गए हैं । इसके अतिरिक्त उसा साहित्य में उपलब्ध उपादानों से राम, कृष्ण, प्रभृति वैष्णव अवतारों के ही संकेत नहीं मिलते अपितु बलदेव, वासुदेव का आधार स्पष्ट लक्षित होता है । जैन महाकाव्यों में विष्णु की अपेक्षा हरि-हलधर की अवतार परम्परा प्रचलित हुई है। (४) वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य
तक कृष्ण के स्वस्प-वर्णन की तुलनाः(क) वैदिक साहित्य में कृष्ण का स्वस्प/जैन साहित्य में
कृष्ण का स्वस्प:
वेदों से लेकर पुराणों तक के विस्तृत क्षेत्र में कृष्ण का व्यक्तित्व विकसित हुआ है । कृष्ण का एक रूप गोपाल कृष्ण का है, जिसका प्रारंभिक विकास ऋग्वेद की ऋचाओं में मिलता है । राय चौधरी सुदूर वेदों के अन्तर्गत विष्णु के नटखट रूप में बालकृष्ण के बीज की उत्पत्ति बतलाते हैं । ऋग्वेद में विष्णु को संबोधित की गई ऋक उन्हें कुचर" और "गिरिष्ठा कहती है । यहीं से कृष्ण की बाल-लीलाओं का आभास मिलता है । ऋग्वेद के अन्य स्थलों में गोपा नाम से विष्णु का संबोधन गोपों से उनके निकट संबंध को सूचित करता है । मैकडानल और कीथ ने भी *गोपा से गौओं के रक्षक" का अर्थ लिया है । हापकिन्स ने इसका अर्थ गोप लिया है।
१- अर्ली हिस्ट्री अफ दी वैष्णव सेक्ट, कलकत्ता १९२०, पृ० ४६-४८ । २- ऋ० १५४, २, प्रतदविष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः । __यश्चोरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनालि विश्व ॥ ३- ऋग्वेद १, २२, । ८ त्रीणि यदा विचकमे विष्णु गोपा अदाभ्यः ॥ ४- वैदिक इन्डेक्स, जिल्द १, पृ० २७८ ।। ५- हापकिन्स, रिलीजन्स आफ इंडिया, पृ० ५७ ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 131