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वह वसुदेव की रानी जरा से उत्पन्न यदुवंशी राजकुमार और कृष्ण का सौतेला भाई है । जैनकथा में यदुवंशियों की संहार-लीला का अभिप्राय होनहार की अनिवार्यता प्रदर्शित करना है । जरत्कुमार और द्वैपायन के सभी प्रयलों और सावधानियों के होते हुए भी द्वारका का दाह और कृष्ण की मृत्यु उन्हीं के निमित्त से हुई।
जैन कथा का हिन्दू कृष्ण-कथा से पार्थक्य सूचित करने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण अंश नेमिचरित है । हिन्दू-कथा में कृष्ण सर्वोपरि हैं, जैनकथा में जिनेन्द्र नेमि का स्थान सर्वोच्च है, बाकी सब उनके नीचे हैं । नेमिचरित से संबंधित कृष्ण-वृत्तान्त केवल जैन कृष्ण-कथा की विशेषता है । अतएव हिन्दू कथा से उसकी तुलना का प्रश्न ही नहीं उठता।
हरिवंश तथा पुराणों में वर्णित कृष्णकथा में कौरव-पाण्डव युद्ध के अन्तर्गत कृष्ण की भूमिका का कोई उल्लेख नहीं मिलता | किन्तु जिन-हरिवंश में कौरव-पाण्डव-विग्रह का संक्षिप्त वर्णन कुछ सर्गों में प्राप्त होता है। यहाँ वास्तविक महाभारत के युद्ध का वर्णन नहीं है, केवल कौरवों के अनीतिपूर्ण व्यवहार का वर्णन पाण्डवों के द्वारका-गमन के प्रसंग में कर दिया गया है। (३) वैष्णव साहित्य के अवतारवाद और हिन्दी जैन साहित्य में
निहित उत्तारवाद का तुलनात्मक अध्ययनः
वैष्णव परम्परा का विश्वास अवतारवाद में है । अवतरणामवतारः (उच्च स्थान से निम्न स्थान पर उतरना ही अवतरण या अवतार है ।) भगवान का बैकुण्ठधाम से भू-लोक पर लीलादि के निमित्त अवतार होता है । कहा जाता है कि बुद्ध की देवताओं के समान गणना होने के पश्चात् से ही अवतारवाद का प्रचलन हुआ और पुराणों ने इसे पुरस्सर तथा प्रचारित किया । परन्तु अवतारों के बीज वैदिक साहित्य में भी खोजे गये हैं ।
शतपथ ब्राह्मण में मत्स्यावतार तथा कूर्मावतार, तैतरीय संहिता और "तैतरीय ब्राह्मण एवं शतपथ ब्राह्मण" में वामनावतार का उल्लेख है । ऋग्वेद में विष्णु की तीन डगों से सृष्टि नापने की कल्पना है । ऐतरेय ब्राह्मण तथा छान्दोग्योपनिषद में देवकीपत्र कष्ण तथा तैतिरीय आरण्यक में वासुदेव श्रीकृष्ण का उल्लेख है । वैदिक ग्रन्थों में इन्हें ब्रह्मा का अवतार कहा है, परन्तु पुराणों में ये विष्णु के अवतार माने गए हैं ।
गीता के अभिमतानुसार ईश्वर अज, अनन्त और परात्पर होने पर भी १- जिन-हरिवंशपुराणः सर्ग ४५-४७ ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास . 127