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राजपुरुष के रूप में वर्णित हैं । द्वारकाधीश श्रीकृष्ण का तीर्थंकर अरिष्टनेमि की धर्मसभाओं में उपस्थित होना, तथा उनसे धार्मिक चर्चा करना, शंका समाधान करना, बहुत ही स्वाभाविक रूप में हिन्दी जैन-साहित्य में वर्णित है।
कृष्ण की धार्मिक निष्ठा के अनेक ऐसे प्रमाण हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि उनका धर्म एवं सत्य अविचलित था । बलद्दप्त लोगों की अपेक्षा अधिक बलवान होते हुए भी उन्होंने लोक का हित सोचकर शान्ति के लिए भरपूर प्रयत्न किया । जो कार्य युद्ध के बिना सम्पन्न हो सकता है, उसके लिए कृष्ण ने कभी भी युद्ध नहीं होने दिया । कंस-वध के पश्चात् उग्रसेन को राजा बनाकर उन्होंने अपने धर्म का पालन किया । क्योकि राज्य उग्रसेन का ही था तथा कंस ने उसे बलपूर्वक प्राप्त किया था । कालयवन को जिस कौशल से कृष्णने समाप्त किया, उससे भी विदित होता है कि वह अनर्थक जीव हत्या के विरोधी थे ।
जैन हिन्दी काव्यों के अनुसार कृष्ण अपने युग में भी असाधारण पुरुष माने जाते थे । तत्कालिन राजाओं तथा जन-साधारण में उनका बहुत मान था । उन्हें जो महत्ता और गरिमा अपने जीवन में प्राप्त हुई, उससे सहज ही उनके चरित्र की उज्ज्वलता का अनुमान किया जा सकता है । उनके व्यक्तित्व में एकांगिता नहीं, सर्वांगीणता है । इसी व्यक्तित्व के कारण वैदिक परंपरा के अनुसार वे ईश्वर के पूर्णावतार कहलाए और जैन परंपरा में उन्हें भावी तीर्थंकर का उच्च-पद प्रदान किया गया ।
114 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास