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बाल्यावस्था से ही स्पष्ट होने लगा था । इस पराक्रम को प्रकट करने के लिए हिन्दी कवियों ने कंस द्वारा पूर्व जन्म में सिद्ध की हुई देवियों द्वारा कृष्ण की खोज कर, उन्हें मारने के प्रयत्नों का वर्णन है । इस वर्णन-क्रम में पूतना के पराभव तथा गोवर्धन धारण की घटना का वर्णन मिलता है । जैन काव्यों में पूतना का वध नहीं दिखाया गया है, इसके स्थान पर पूतना का रोते-चिल्लाते भाग जाने का वर्णन है । उनके पराक्रम पूर्ण कार्यों में यमलार्जुनोद्धार, कालिय नागदमन तथा पद्मोत्तर व चम्पक वध तथा कंस वध इत्यादि हैं।
__ कृष्ण एक चक्रवर्ती राजा के रूप में महान वीर, अद्वितीय पराक्रमी तथा शक्ति-सामर्थ्य से परिपूर्ण शलाकापुरुष थे । अपने बुद्धिकौशल के बल पर कृष्ण आधे भरत-क्षेत्र के अधिपति अभिषिक्त हुए और उन्हें वासुदेव के रूप में मान्यता मिली । तत्कालीन परिस्थितियों का आकलन करने से विदित होता है कि श्रीकृष्ण के समय में राजकीय स्थिति बड़ी बेढंगी थी । क्षत्रिय नृपगण प्रजारक्षण के अपने सामाजिक दायित्व को विस्मृत कर अधिकार मद से मतवाले बन गए थे । एक ओर कंस के अत्याचार बढ़ते जा रहे थे, दूसरी ओर जरासंध अपने बल-पराक्रम के अभिमान के वशीभूत होकर नीति-अनीति के विचार को तिलांजलि दे बैठा था । तीसरी ओर शिशुपाल अपनी प्रभुता से मदान्ध हो रहा था तो चौथी ओर दुर्योधन अपने सामने सब को तृणवत् समझ कर न्याय का उल्लघंन कर रहा था । इस प्रकार भारत वर्ष में सर्वत्र अनीति का साम्राज्य फैला हुआ था । ऐसी परिस्थितियों में रिपुमदमर्दन श्रीकृष्ण कार्यक्षेत्र में कूदते हैं और अपने अनुपम साहस, असाधारण विक्रम, विलक्षण बुद्धिकौशल एवं अतुल राजनीतिक पटुता के बल पर आसुरी शक्तियों का दमन करते हैं । उन्होंने सभी से युद्ध करके उनको पराजित किया । जैन साहित्य में वर्णित वासुदेव राजा कृष्ण द्वारका सहित सम्पूर्ण दक्षिण भारत प्रदेश के शक्तिशाली अधिपति हैं तथा कंस व जरासंध के हन्ता हैं । जैन हिन्दी काव्यों में राजगह के शक्तिशाली अधिपति जरासंध तथा कंस के वध से प्रसन्न हुए देवगणों ने वसुदेवनन्दन कृष्ण का नवम वासुदेव के रूप में अभिनन्दन किया था ।
इन ग्रन्थों में कृष्ण का जो तृतीय स्वरूप हमारे सामने आता है, वह है धर्मनिष्ठं आदर्श राजपुरुष के रूप में । कृष्ण की यह धार्मिक निष्ठा तीर्थंकर अरिष्टनेमि के संदर्भ में वर्णित हुई है । जैन परम्परानुसार कृष्ण तीर्थंकर अरिष्टनेमि के समकालीन ही नहीं, उनके चचेरे भाई भी हैं । वे उनकी धर्म-सभाओं में उपस्थित रहनेवाले तथा उनसे धर्मोपदेश सुननेवाले
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 113