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भाषाओं में ही रची । हिन्दी जैन साहित्य में रचित रचनाओं में अपभ्रंश साहित्य का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । यह प्रभाव १६ वीं शताब्दी पूर्वार्द्ध तक हिन्दी जैन साहित्य की रचनाओं पर रहा । १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी अपभ्रंश से मुक्त होकर एक स्वतंत्र भाषा बन जाती है । विकास की दृष्टि से इसे हम अपभ्रंश हिन्दी काल मानते हैं, जहाँ तक हिन्दी
जैन साहित्य के विषय का प्रश्न है, ऐसा कोई निश्चित काल नहीं माना जा सकता । क्योंकि जैन साहित्य समयानुसारी नहीं, वरन् शाश्वत धर्मानुसारी अधिक रहा है । रचनाओं में वेग और शैथिल्य देश, काल और स्थिति के ही कारण बढ़ते-घटते अवश्य रहे हैं ।
कवियों की कृष्ण विषयक हिन्दी जैन विशाल काव्य-कृतियाँ जो मूलतः संस्कृत ग्रन्थों तथा जिनसेनाचार्य कृत हरिवंश पुराण, गुणभद्राचार्य कृत उत्तर पुराण (महापुराण) तथा हेमचन्द्राचार्य कृत त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित तथा लघु काव्य कृतियाँ जो रास, प्रबन्ध, चौपाई, फागु, बेलि, चरित्र आदि के रूप में लिखी गईं तथा जिन कृतियों में कृष्ण चरित्र का मूल तथा प्रसंगानुकूल रूप में वर्णन हुआ है, उन सभी का अध्ययन करने पर कृष्ण का जो स्वरूप हमारे सामने उभर कर आता है हम संक्षेप में इस प्रकार कह सकते हैं
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण के बाल-गोपाल रूप-वर्णन के दो ही रूप हैं-पहला नटखट व चपल ग्वाल बालक व द्वितीय कृष्ण का गोपाल-वेश । एक नटखट व चपल ग्वाल बालक के रूप में कृष्ण के दूध-दही खाने-फैलाने तथा विविध बाल-सुलभ क्रीड़ाएँ करने का वर्णन हुआ है । दूसरे रूप में गोपाल-वेश में पीताम्बर पहनने, मयूर-पिच्छ का मुकुट धारण करने, आभूषण पहनने तथा पुष्पों की माला धारण करने का वर्णन हुआ है।
जैनागमों में कृष्ण के गोकुल-प्रवास की कथा तथा कृष्ण के बाल-गोपाल स्वरूप का वर्णन नहीं है । आचार्य जिनसेन से पहले जैन साहित्य में श्रीकृष्ण की महत्ता दो स्वरूपों में ही प्रस्तुत की हुई मिलती है । एक शलाकापुरुष के रूप में दूसरे आध्यात्मिक पुरुष के रूप में । आचार्य जिनसेन ने सर्व प्रथम शायद वैष्णव परम्परा तथा हरिवंश पुराण से प्रभावित होकर श्रीकृष्ण के बाल-गोपाल स्वरूप का वर्णन अपने हरिवंश पुराण में किया । जैन साहित्य पर भागवत पुराण में वर्णित बाल-गोपाल स्वरूप का जो वर्णन है, उसका स्पष्ट प्रभाव दिखाई नहीं देता।
द्वितीय-कृष्ण एक अद्वितीय वीर पुरुष थे । उनका अद्वितीय पराक्रम
112 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास