________________
वसुधा वीर वदीतउ बीतउ जिणि जरासिंधु । ताहि हरि अरिबल टालए राज सुबंधु ॥
(ग) अध्यात्मिक भावना से युक्त राजपुरुष के रूप में
1
जैन साहित्य में श्रीकृष्ण को आध्यात्मिक भावना से युक्त राजपुरुष के रूप में चित्रित किया गया है । कृष्ण की यह धार्मिक निष्ठा तीर्थंकर अरिष्टनेमि के संदर्भ में वर्णित हुई है । जैन साहित्यिक कृतियों में प्राप्त वर्णन के अनुसार अरिष्टनेमि द्वारका के नागरिकों को उद्बोधन देने हेतु द्वारका आते ही रहते थे । अरिष्टनेमि के द्वारका प्रवास का प्रसंग अनेक आगमिक कृतियों में तथा जिनसेन कृत हरिवंश पुराण में हुआ है । इन सभी कृतियों में श्रीकृष्ण, उनके परिवारजन तथा द्वारका के अन्य नागरिकों के इस धर्मसभा में जाने का तथा प्रत्येक अवसर पर अरिष्टनेमि के उपदेश से प्रभावित होकर कृष्ण वासुदेव के ही परिवार तथा द्वारका के अन्य नागरिकों का अरिष्टनेमि के सान्निध्य में दीक्षा लेने का प्रसंग वर्णन है ।
इसी प्रकार की एक सभा में श्रीकृष्णने अरिष्टनेमि से प्रश्न किया कि “क्या उनके लिए अरिष्टनेमि के पास प्रव्रजित होना सम्भव है या नहीं ?" इसका उत्तर देते हुए अर्हत अरिष्टनेमि ने वासुदेव से कहा- “हे कृष्ण ! सभी वासुदेव ( श्रेष्ठ पुरुष ) पूर्वभव में निदान किये हुए होते हैं । अर्थात् वासुदेव अपने पूर्व जन्म में किसी अनुष्ठान विशेष से फल-प्राप्ति की अभिलाषा किए हुए होते हैं । इस कारण से हे कृष्ण ! ऐसा कहा जाता है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि वासुदेव प्रव्रजित हो सके हो ।"
उक्त कथन से हम यह कह सकते हैं कि श्री कृष्ण की तीर्थंकर अरिष्टनेमि के धार्मिक सिद्धान्तों के प्रति रुचि थी तथापि वासुदेव होने की वजह से वे वैराग्य मार्ग के पथिक नहीं हो सकते थे ।
कालान्तर में इसी साहित्य को आधार बनाकर हिन्दी जैन कवियों ने बहुत सी कृतियाँ प्रस्तुत कीं । इन कृतियों का सारांश अरिष्टनेमि की सभाओं में जाना, उपदेशों को सुनना तथा दीक्षा लेना ही है ।
कवि नेमिचन्द के शब्दों में
"नमस्कार फिर-फिर कियो, प्रश्न कियो तब केशोराय । भेद को सप्त तत्त्व को, धर्म-अधर्म कह्यौ जिनराय || M
१ - जयशेखर सूरि : नेमिनाथ फागु २-३ |
२
नेमीश्वर रास : नेमिचन्द्र- छन्द सं० ११००
110 ● हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास