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जानि कृष्ण दोनों कर गहे,
फेरि पाइ धरती पर बहे ॥१ कवि सोम सुन्दर (सन १४२६) के रंगसागर नेमिफागु" में कंस की मल्लशाला में प्रदर्शित युवक कृष्ण के इस पराक्रम का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि यह पराक्रम सामान्य व्यक्ति में नहीं हो सकता । यह वीर तो नारायण (वासुदेव) है जिसने कंस का विध्वंस किया है । कवि के शब्दों में - "अवतारीआ हणि अवसररि मथुरा पुरिस नव नेहरे, .. .
सुख लालित लीला प्रीति अति बलदेव वासुदेव वे हुरे । वसुदेव रोहिण देवकी नंदन चंदन अंजन धान रे,
__ वृंदावनि यमुना जलि निरमलि रमति सांई गोई गान रे । रमति करंता रंगि चड़इ गोवर्द्धन शृंगि,
गूजरी गोवलणिए गाइंगोपी सिउं मिलीए । काली नाग जल अंतरालि कोमल कमलिनी नाल,
नाखिउ नारायणिए रमलि परायणीए । कंस मल्ला खाडइ वीर पहुता साहस धीर,
वेहु बाइ वाकरीए बलवंता बाहिं करीए, बलभद्र वलिआ सार मारिउ मौष्टिक मार ॥
कृष्णि बल पूरिउए चाणूर चुरिउ ए, मौष्टिक चाणूर च्यूरिए देखोय अठिउ कंस,
नव बलवन्त नारायणि तास कीथउ ध्वंस ॥२ अपने प्रद्युम्न चरित्र काव्य में कवि सधारु ने नारद के मुख से रुक्मिणी के समक्ष कृष्ण के जो गुण-वर्णन कराए हैं, उनमें कृष्ण में विद्यमान उन लक्षणों का भी उल्लेख किया है जो वासुदेव (नारायण) शलाका पुरुष में होते हैं। नारद कहते हैं - संख चक्र गजापहण जासु, अरु बलभद्र सहोदर तासु ।
सात ताल जो बाणनि हणइ, सो नारायण नारद भणइ । १- शालिवाहन : हरिवंश पुराण, पन्ना ४५, - हस्तलिखित प्रति दि. जैन - पल्लीवाल
मंदिर, धूलियागंज, आगरा । २- सोमसुन्दर : रंगसागर नेमि फागु : प्रथम खण्ड ३२-३६.
म खण्ड ३२-३६.
106 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास