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________________ रमति करंता रंगि चड़इ गोवर्धन शृंगि गूजरि गोवालणए गाइ गोपी सिडं मिलीए काली नाग जल अंतरालि कोमल कमलिनी नाल नाखिउ नारायणिए रमलि पराजणीए कंस मल्ला खाउइ वीर पहुता साहस धीर ' बेहु वाइ वाकरीए बलवंता वाहिं करीए बलभद्र वलिआ सार मारिउ मौष्टिक मार । कृष्णि बल पूरिउए चाणूर चूरिउ ए . . मौष्टिक चाणूर च्यूरिए देखीय ऊठिउ कंस नव बलवन्त नारायणि तास का धउ विध्वंस ॥ (८) बलिभद्र चौपाई इस कृति के रचयिता कवि यशोधर थे। द्वारिका नगरी का वर्णन करते हुए कवि ने उसे इन्द्रपुरी के समान बताया है । यह बारह योजन विस्तार वाली थी । वहाँ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ थीं । अनेक धनपति एवं वीरवर वहाँ निवास करते थे । श्रीकृष्ण याचकों को मुक्त हस्त से दान देते थे । यथा'नगर द्वारिका देश मझार-जाणे इन्द्रपुरी अवतार । बार जोयण ते फिर तुंवसि, ते देखी जनमन उलसि ॥ ११ ॥ नव खण तेर खणा प्रासाद, दृग श्रेणी सम लागु वाद । । कोटीधन तिहाँ रहीण घणा, रत्न हेम हीरे नहीं मणा ॥ १२ ॥ याचक जननि देह दान, न हीयलु हरष नहीं अभिमान । सूर सुभट एक दीसि घणा, सज्जन लोक नहीं दुजेणा ॥ १३ ॥ द्वारिका के विनाश तथा कृष्ण के परमधामगमन की घटना को नेमिनाथ की भविष्यवाणी के रूप में वर्णित किया गया है"द्वीपायन मुनिवर जे सार, ते करसि नगरी संघार । मद्य भांड जे नामि कहीं, तेह थकी वली जलहि सहीं ॥ १२ ॥ पोरलोक सवि जलसि जिसि, बन्धन नीक्कसस तिसि । तह्य सहोदर जराकुमार, ते हनि हाथि मारि मोरार ।। ६३ ।।" यह रास उनकी अनेक कृतियों में सबसे अच्छी कृति बतायी जाती है । बलराम कृष्ण के सहोदर-प्रेम का आदर्श इसमें प्रस्तुत हुआ है। 98 . हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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